जैसा कि अनुमान था, पांच राज्यों में-से चार राज्यों में करारी हार का ठिकरा कांग्रेस ने ईवीएम पर फोड़कर अपनी कमियों व खामियों को छुपाने का ही नाकाम प्रयास किया है। जबकि उसको चाहिए था कि वह हार का पोस्टमार्टम पूरी ईमानदारी व संजीदगी से करता और अपनी गलतियों से सबक लेकर भावी रणनीति बनाने में जुट जाता।
हार की खीझ ईवीएम पर उतारने की उसी की ही नहीं, विपक्षी दलों की पुरानी व जानी-पहचानी आदत है। लेकिन, जब इन्हें चुनाव आयोग व सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तथ्य व सबूत पेश करने का मौका दिया जाता है, तब यही विपक्षी पार्टियां या तो खिसक जाती हैं या फिर ठोस सबूत पेश नहीं कर पाती हैं।
इससे जगजाहिर है कि वे अपने आरोप पर गंभीर नहीं हैं और अपनी गलतियों को ईवीएक की आढ़ में छुपाने की नाकाम कोशिशों में लगी हुई हैं।
सोचनीय पहलू यही कि ईवीएम में यदि कोई तकनीकी खरीबी होती या उसमें छेड़खानी की गई होती, तो मप्र में 230 में-से 66 सीटें कांग्रेस कैसे जीत लेती? तब तो उसको पूरी-की-पूरी सीट पर शिकस्त मिलनी चाहिए थी।
यहां तक कि जो पूर्व सीएम व वर्तमान के राज्यसभा सदस्य दिग्विजय सिंह ईवीएम पर दोषारोपण करने से अघा नहीं रहे हैं, उनके पुत्र जयवर्धन सिंह चुनाव किन तौर-तरीकों से जीत गए? इसका जवाब फार्मर मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को सार्वजनिक रूप से देना ही चाहिए।
यही नहीं, छग में हार के लिए जिम्मेदार व भूतपूर्व हो चुके मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कुटील हंसी हंसते हुए ईवीएम को दोष दे रहे हैं। यदि ऐसा है, तो वे पाटन से चुनाव किस पद्धति से जीत गए और उनकी पार्टी 90 में-से 35 सीटें किन माध्यमों से जीती?
इतना ही नहीं, कांग्रेस पार्टी को यह भी वोटरों को बताना चाहिए कि वे राजस्थान में 199 में-से 69 सीट किस तरह से हस्तगत कर लिए और तेलंगाना में 119 में-से 64 सीटें जीतकर सरकार बना लिए।
क्या तेलंगाना के ईवीएम में तकनीकी त्रुटि नहीं थी? फिर मिजोरम में लालदुहोमा की पार्टी जोरम पीलुल्स मूवमेंट नई पार्टी होने के बावजूद चुनाव किन आधारों से जीत गई?
सौ बात की एक बात, जहां विपक्षी पाटियां चुनाव हारकर सरकार से बाहर हो जाती हैं या सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल नहीं कर पाती हैं, वहां ईवीएम में खराबी निकली जाती है और जहां जीत जाती हैं, वहां ईवीएम पर मौन धारण कर लेती है।
यदि ईवीएम में छेड़ाछाड़ी की ही जाती है, तो वे छह माह पूर्व हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव और लगभग सालभर पूर्व हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव किस तरह से जीत गए?
कांग्रेस की तरह सपा प्रमुख अखिलेश यादव को भी ईवीएम में छेड़छाड़ नजर आती है। इसीलिए उनका तर्क है कि विकसित देश अमेरिका व जापान तक में बैलेट पेपर से चुनाव हो रहे हैं, तो यहां भी उसी से होना चाहिए।
कांग्रेस व सपा की देखादेखी ऐसा बेतुका राग अन्य तमाम विपक्षी पार्टियां अलाप रही हैं। जबकि ईवीएम 1998-99 से प्रयोग में आया है, जो कांग्रेस सरकार की देन कही जा सकती है। इसी ईवीएम के माध्यम से यूपीए की केंद्र सरकार 2004 व 2009 में 10 साल तक सत्ता में रही। तब, ईवीएम इसीलिए बेहतर था; क्योंकि सत्ता उनके हाथ में आई थी, पर अब सत्ता खिसकी जा रही है, तब वही बुरी हो गई है।
यही कारण है कि वास्तविकताओं से आंखें मूंद लेने की प्रवृति ने कांग्रेस व विपक्षी पार्टियांे को मतदाताओं ने हाशिए पर ढकेल दिया है और पांच राज्यों में-से एक को छोड़कर बाकी में सबक सीखा दिया है।
लगता है कि आगे भी इनका यही हश्र होना तब तक तय हे, जब तक ये पार्टियां धरातल पर उतरकर जनता के लिए काम नहीं करती और जनहित व समग्र राष्ट्र के हित में सोच नहीं रखती।
वस्तुतः, ईवीएम पर खीझ निकालना विपक्षी पार्टियों की विचार-शून्यता का द्योतक है, जो तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है।
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