शबनम की बूंदे बरसने लगे,
फूलो की खुश्बू महकने लगे,
रात गुजरी ये कैसे पता ही नहीं,
भोर में पक्षिया चहचाने लगे।
नींद आती नहीं सोचकर बस यही,
भूख के मारे बच्चे अब सोने लगे।
भोर की कुछ मंज़र ऐसी रही,
दिए बुझने लगे हम टहलने लगे।
सहर* में अंधेरा रहा ही नहीं,
जो अफताब* घर से निकलने लगे।
सहर की सदाक़त में क्या कमी है,
हम अपने ही आदत से सोने लगे।
फज़र की अहमियत हमे मालूम नहीं,
भोर की ज़िक्र ज़न्नत से होने लगे।
जो सोते थे धूप में हम भी कभी,
अब फज़र की तमन्ना हम रखने लगे।।