shabd-logo

गाँव का डूम (दलित)

7 नवम्बर 2024

0 बार देखा गया 0


मैंने उन्हें अभी नमस्ते की ही थी कि तभी मुझे माँ ने अंदर से आवाज दी कि - " दूध दुहने के लिए जो बाल्टी लेकर आए हैं जरा वो पकड़ाना।" मैंने हामी भरते हुए वह बाल्टी समीप खड़े` संसरु' जो की अपने जेब से गोल्डन निकाल कर खा चुका था और उसे वापस रख रहा था, की तरफ बढ़ाते हुए कहा- " जरा ये बाल्टी माँ को पकड़ाना।" उसने जैसे ही ये सुना उसकी हल्की सी मुस्कान निकली जिसमें उसके दांतों पर लगी हुई गोल्डन साफ चमक रही थी, उसे एक हाथ के नाखून से साफ करता हुआ वह जानबुझकर मेरी बात को अनसुना करता हुआ बोला - "क्या कहा ठाकुर साहब आपने?"  मैंने दोबारा कहा - " यही कि ये बाल्टी जरा माँ को पकड़ा दो मैं बछड़े को पानी पिला रहा हूं।" उसने इस बार भी बोला - " अरे ठाकुर साहब ये आप क्या कह रहे हैं।" मैं ये सोचते हुए कि आखिर मैने ऐसा भी क्या बोल दिया कि जो ये ऐसे बोल रहा है। मैंने बोला - "अरे आप उधर नज़दीक खड़े....." मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि तभी ' ओबरे ' (गाय को जहां रखा जाता है) से गुस्से में डांटती हुई माँ बाहर आकर बोली - " कैसा पागल लड़का है रे तू, जरा सी भी अक्ल नहीं है क्या तुझमें।" और मेरे हाथ से बाल्टी छीनते हुए 'संसरू' को गोबर ढोने के लिए बोल दिया। उसने भी तुरंत "जी ठकुराइन जी" कहते हुए हामी भरी और गोबर को समेटने में लग गया।

मैंने उन्हें अभी नमस्ते की ही थी कि तभी मुझे माँ ने अंदर से आवाज दी कि - " दूध दुहने के लिए जो बाल्टी लेकर आए हैं जरा वो पकड़ाना।" मैंने हामी भरते हुए वह बाल्टी समीप खड़े` संसरु' जो की अपने जेब से गोल्डन निकाल कर खा चुका था और उसे वापस रख रहा था, की तरफ बढ़ाते हुए कहा- " जरा ये बाल्टी माँ को पकड़ाना।" उसने जैसे ही ये सुना उसकी हल्की सी मुस्कान निकली जिसमें उसके दांतों पर लगी हुई गोल्डन साफ चमक रही थी, उसे एक हाथ के नाखून से साफ करता हुआ वह जानबुझकर मेरी बात को अनसुना करता हुआ बोला - "क्या कहा ठाकुर साहब आपने?"  मैंने दोबारा कहा - " यही कि ये बाल्टी जरा माँ को पकड़ा दो मैं बछड़े को पानी पिला रहा हूं।" उसने इस बार भी बोला - " अरे ठाकुर साहब ये आप क्या कह रहे हैं।" मैं ये सोचते हुए कि आखिर मैने ऐसा भी क्या बोल दिया कि जो ये ऐसे बोल रहा है। मैंने बोला - "अरे आप उधर नज़दीक खड़े....." मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि तभी ' ओबरे ' (गाय को जहां रखा जाता है) से गुस्से में डांटती हुई माँ बाहर आकर बोली - " कैसा पागल लड़का है रे तू, जरा सी भी अक्ल नहीं है क्या तुझमें।" और मेरे हाथ से बाल्टी छीनते हुए 'संसरू' को गोबर ढोने के लिए बोल दिया। उसने भी तुरंत "जी ठकुराइन जी" कहते हुए हामी भरी और गोबर को समेटने में लग गया।मैंने उन्हें अभी नमस्ते की ही थी कि तभी मुझे माँ ने अंदर से आवाज दी कि - " दूध दुहने के लिए जो बाल्टी लेकर आए हैं जरा वो पकड़ाना।" मैंने हामी भरते हुए वह बाल्टी समीप खड़े` संसरु' जो की अपने जेब से गोल्डन निकाल कर खा चुका था और उसे वापस रख रहा था, की तरफ बढ़ाते हुए कहा- " जरा ये बाल्टी माँ को पकड़ाना।" उसने जैसे ही ये सुना उसकी हल्की सी मुस्कान निकली जिसमें उसके दांतों पर लगी हुई गोल्डन साफ चमक रही थी, उसे एक हाथ के नाखून से साफ करता हुआ वह जानबुझकर मेरी बात को अनसुना करता हुआ बोला - "क्या कहा ठाकुर साहब आपने?"  मैंने दोबारा कहा - " यही कि ये बाल्टी जरा माँ को पकड़ा दो मैं बछड़े को पानी पिला रहा हूं।" उसने इस बार भी बोला - " अरे ठाकुर साहब ये आप क्या कह रहे हैं।" मैं ये सोचते हुए कि आखिर मैने ऐसा भी क्या बोल दिया कि जो ये ऐसे बोल रहा है। मैंने बोला - "अरे आप उधर नज़दीक खड़े....." मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि तभी ' ओबरे ' (गाय को जहां रखा जाता है) से गुस्से में डांटती हुई माँ बाहर आकर बोली - " कैसा पागल लड़का है रे तू, जरा सी भी अक्ल नहीं है क्या तुझमें।" और मेरे हाथ से बाल्टी छीनते हुए 'संसरू' को गोबर ढोने के लिए बोल दिया। उसने भी तुरंत "जी ठकुराइन जी" कहते हुए हामी भरी और गोबर को समेटने में लग गया।

मैं बड़ा हैरान था कि माँ बेवजह इतना गुस्सा क्यों हुई? मैं यही बात सोच - सोच कर खुद से ये सवाल कर रहा था कि स्कूल में तो पढ़ाया जा रहा है कि भेदभाव नहीं करना चाहिए लेकिन यहां तो खुद वह डूम स्वयं ये कह रहा था मानों वह केवल हमारी सेवा करने के लिए ही पैदा हुआ हो। घर आकर मैंने माँ से प्रश्न किया कि -    "आखिर आप उस समय गुस्सा क्यों हुई थी?" तो वह बोली कि - " तू जानता नहीं है क्या कि वो एक डूम था और तू उस से वह बर्तन छूने को बोल रहा था जिसे दूध दुहने के लिए रखा गया था।"  मैंने भी अब थोड़ा अपनी शिक्षा का ढकोसला पीटना शुरू कर दिया और कहा -" क्या माँ आप अभी भी इसी रूढ़िवादी सोच को रखे हुए हो, आपको पता भी है कि संविधान में नियम है कि किसी के साथ भेदभाव करना दंडनीय अपराध है। यदि इन्होंने हमारे खिलाफ मुकदमा दर्ज कर दिया न तो आप सब को जेल की हवा खानी पड़ेगी।" मैं गर्व से फूल रहा था कि मैने कितनी अच्छी बात कही है मेरी पढ़ाई काम आ रही है आज जो मैं अपनी मां को सतर्क कर रहा हूं लेकिन माँ ठहरी बेचारी अनपढ़ लेकिन जानकारी सब है उनको वह फटाक से बोली -  " अरे तो कौन सा अकेले हम जेल जाएंगे, ऐसे तो पूरा गांव ही जेल जाएगा , इनका काम है भई ये , तो करेंगे क्यों नहीं भला, वो सब नियम होंगे तुम शहर में रहने वालों के लिए हमारे पूर्वजों ने ऐसे ही तो काम बांटे नहीं होंगे सबको अलग - अलग की ब्राह्मण पूजा पाठ करेंगे, क्षत्रिय रक्षा और राज करेंगे और वैश्य व्यापार करेंगे वैसे ही ये शूद्र सेवा करेंगे। तो अब इनसे सेवा न करवाए तो क्या बैठकर इनकी पूजा करें।" और माँ थोड़ा हँस दी और बोली - " बेटा जो नियम पूरे गांव वाले मानते हैं हम भी वही मानते हैं इसलिए इन सब बातों पर ध्यान मत दे ओर अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे।"

अब भला मैं हैरान की पढ़ाई करके ही तो बोल रहा हूं ये सब, मैंने भी झुंझलाकर कहा - " हां फ़िलहाल तो जब तक ये लोग खुद ही इस रूढ़िवादी सोच से बाहर नहीं निकलते कि उनका जन्म हमारी सेवा करने के लिए नहीं अपितु अपने परिवार की देखभाल और सेवा करने के लिए हुआ है, तब तक तो आप लोगों के मज़े है, करवाइए जितनी मजदूरी करवानी है और वैसे भी ये लोग खुद ही कहां इस से छुटकारा चाहते हैं वर्ना सीधा मना भी कर सकता था वो आपको । लेकिन नहीं किया, तो झेले अब जब तक आवाज नहीं उठाएंगे अपनी आजादी का तब तक ऐसे ही करते रहेंगे गुलामों की तरह काम।"  माँ ने मेरी बातों को सुनना उतना लाज़मी नहीं समझा और वह अपने घर के बाकी कामों में जुट गई।

उसी रात गांव में एक घटना घटी गांव में एक बुजुर्ग व्यक्ति का देहांत हो गया और अगले दिन जब उस शव के दाह संस्कार की बात आई और उसे मुर्दाघाट लेकर जाने की बात आई तो गांव के कुछ सदस्यों के बीच आपस में बातचीत चल रही थी। मैंने उनमें से किसी एक की आवाज सुनी - " उन सालों डूमढो ने भी ड्रामे कर रखें हैं, उनको न पानी देना चाहिए न खाना।"

दूसरा बोला - " अरे वो जो ' मंगरू' है न! वो है साला उन सबका नेता। मानता ही नहीं किसी की, परसों भी अकड़ रहा था साला मेरे साथ जब मैंने उसको बोला कि मेरे घर तक गेहूं का बोरा छोड़ दे, साले ने छोड़ा नहीं चाहे कितना ही धमकाकर बोला था मैने।"

तीसरा बोला - "अरे इनकी तो सालों की जात ही ऐसी है जब जरूरत होती है तब साले दौड़े - दौड़े आते हैं कि मालिक कोई काम दे दो और जब हमें जरूरत होती है तो साले नज़दीक भी नहीं फटकते।"

चौथा बोला - "अगर आज ये लाश जलाने के लिए लकड़ी लेकर आए न तो सालों का सर फोड़ दूंगा मैं इनका। साफ मना कर देना सालों को और नज़दीक भी मत फटकने देना उनकी मां का…...!"

मैं हैरानी से पास में खड़े होकर चुप- चाप ये सब सुन रहा था, चूंकि मुझे असल में मुद्दा क्या था ये ही पता नहीं था तो मैं यही सोच रहा था कि आखिर ये इतना क्यों भड़क रहे हैं उन लोगों पर। मैंने समीप में खड़े अपने दूसरे परिवार के बड़े भाई मनोज से जो की  उम्र में मुझसे बस चार- पांच महीने ही बड़े थे, इसलिए हमारे बीच मैत्री भाव अधिक था उनसे पूछा कि -   "भाई यार आखिर माजरा क्या है, ये लोग इतना क्यों भड़क रहे हैं उन लोगों पर।" तब  उन्होंने मुझे बताया कि अभी कुछ दिन पहले एक मीटिंग हुई थी जिसमें इन सब डूमों को बुलाया था और उनकी बढ़ती हुई बदतमीजी और बढ़ते हुए आक्रोश को ध्यान में रखते हुए उन्हें गांव से वंचित कर दिया गया था। उनके दुःख में भी अब गांव का कोई सदस्य कोई मदद नहीं करेगा। गांव के स्याणा (मुखिया) ने बड़े ही कठोर ढंग से समस्त ग्रामीण के प्रमुख सदस्यों एवं डूम के प्रमुख लोग जो भी उस मीटिंग में आए हुए थे, अपना निर्णय सुना दिया था। बस उसी बात को लेकर आज ये चर्चा कर रहे हैं।

मैं मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि चलो आखिर उनमें कुछ लोगों में तो इतनी हिम्मत आ ही गई है कि वे लोग विरोध कर सकते हैं और अपने अधिकारों को जानते हैं। मैं कल रात को व्यर्थ के ख्याल कर रहा था कि ये लोग खुद ही छुटकारा नहीं चाहते जबकि कुछ लोग तो चाहते हैं कि वे इन सब झंझटों से मुक्ति पाए।

कुछ ही देर में हम सब जितने भी गांव के पुरूष थे, शव को लेकर जलाने के लिए मुर्दाघाट की ओर चल दिए जो कि गांव से लगभग 5 - 6 किलोमीटर की दूरी पर ऊबड़ - खाबड़ रास्तों से होता हुआ जाता था। उस रास्ते पर चलते हुए ऐसे ख़्याल आते थे कि यदि यहां से किसी का पैर फिसला तो सीधा खाई में गिरेगा और साथ में एक और लाश उठाकर ले जानी पड़ेगी। हमारे गांव का ये नियम था कि शव को मुर्दाघाट तक पहुंचाने के लिए रास्तों में तीन जगह पर शव को रखा जाता था जिसके पीछे अलग अलग मान्यताएं प्रसिद्ध थी कुछ का मानना था कि ये वो जगह है जहां जहां से ये गुजरा करते थे और थक कर आराम किया करते थे अत: अंतिम यात्रा में भी इनको यहां थोड़ी देर आराम करने देना चाहिए। और कुछ का कहना था कि यदि सीधे लेकर जाएंगे तो इनकी आत्मा वापस गांव में आ जाती है इसलिए ये तीन जगह ऐसी है जहां से इनकी आत्मा को बांध देते हैं कि यदि वापस आने का प्रयास किया तो इस से आगे न आ पाए और इसलिए इन जगहों पर थोड़ा सा तेल, थोड़े से चावल और एक रुपए का सिक्का रखा जाता है। अब मुझे समझ में आया कि गांव की जो अंतिम सीमा होती थी वहां पर हल के नीचे का पैना हिस्सा जिसे' नासी ' कहा जाता है उसपे धागे, कील और एक रुपए का सिक्का गुदा हुआ होता था और जमीन में गाड़ कर रखते थे ताकि इस से अंदर कोई भी भूत प्रेत न आ सके।

इसी तरह की और भी कई मान्यताएं गांव में प्रचलित थी। लगभग 10 मिनट चलने के बाद हम लोग उस स्थान पर पहुंचे जहां सबसे पहले शव को आराम करने के लिए रखा जाता था और वहां से कुछ लड़कों को आगे भेज दिया ताकि वे तब तक लकड़ियों का बंदोबस्त कर के रखें जब तक शव को उसकी अंतिम चौथी जगह जहां मुर्दाघाट था तक पहुंचाया जाए। बस उसके बाद थोड़ी देर वहां आराम करने के पश्चात हम लोग शव को लेकर आगे बड़े। चूंकि हर बार लकड़ी लेकर आने ओर चिता बनाने का काम उन डूमों (दलितों) का होता था लेकिन उनको तो गांव से वंचित कर दिया था तो इस बार खुद ही कुछ बड़े एवं समझदार लोगों को उन लड़कों के साथ भेजा गया था जो अच्छे से चिता का निर्माण कर सके ताकि शव को जलाने में कोई समस्या का सामना न करना पड़े।

बस हम अपने उस दूसरी जगह पहुंचने ही वाले थे जहां शव को रखा जाता है कि तभी उस तरफ से हमें कुछ डूम हाथ में कुल्हाड़ी और बड़े बड़े दरांती लेकर हमारी तरफ आते हुए दिखाई दिए। वे लोग गांव के स्याणा के करीब आकर जैसे ही कुछ बोलने को हुए गांव वाले उन्हें घूरने लगे और वो एक व्यक्ति जो उनका सर फोड़ने का इच्छुक था वो आगे आकर बोला - " क्यों बे चमारों अब क्यों आए हो यहां चले जाओ नहीं तो.... " स्याणा ने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा - "चलो उधर बैठकर बात करते हैं।" शव को नीचे रख कर सब लोग उधर उनकी बाते सुनने के लिए इकट्ठे हो गए। उनमें से एक डूम जिसका नाम 'सुखिया' था वह बोला - " ठाकुर साहब ऐसी भी क्या गलती हुई है हमसे जो आपने हमें बिल्कुल ही हर चीज से बेदखल कर दिया। हमको आज भी बुलाना लाज़मी नहीं समझा।" स्याना ने हूं.. करते हुए कहा -"अच्छा तो तुमको नहीं पता?"  ' संसरु' भी उन लोगों के साथ आया था वह बोला - "ठाकुर साहब कहां आप लोग इन लड़कों की बातों में आकर नाराजगी रखे हुए हैं, कम से कम हमें शव के लिए लकड़ियां और चिता बनाने के काम से तो वंचित मत कीजिए, ये काम तो हमारे पुराने समय से हमारे बुजुर्ग सब करते हुए आ रहे हैं, आज हमसे हमारा ये काम तो मत छीनिए, हमें अच्छा थोड़े ही लग रहा है कि जो हमारा काम है वो आप लोग करे।" गांव के लोग आपस में फुसफुसाहट करने लगे और स्याणा ने कहा - " नहीं भई हमें बिल्कुल जरूरत नहीं है तुम लोगों की, अरे तुम्हारे इतने भाव बढ़ गए थे कि तुमको ऊंच नीच का फर्क ही नहीं पता हो जैसे। अब तुम लोग इसी में सही हो कि तुमको किसी चीज में शामिल न किया जाए।" 

उधर डूम का नेता ' मंगरू' भी आया था जो एक हाथ में कुल्हाड़ी लिए और उसको अपने कंधे में रखकर दूसरे हाथ से मुंह में बीड़ी सुलगाता हुआ बैठा था, वह बोला - " अरे ठाकुर साहब ऐसा भी क्या है, हम तो नीच जात के है हमसे तो भूल चुक हो ही जाती है, आप भी हम डूम,चमारों की बातों का बुरा मान गए जिनकी कोई बिसात ही नहीं है... उसकी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि गांव का एक हट्टा कट्टा आदमी बोला - " क्यों बे मंगरू, आज तेरी अकड़ कहां गायब हो गई, उस दिन तो मीटिंग में बहुत उछल रहा था। चलो जाओ यहां से हमें नहीं है अब तुम्हारी जरूरत।"  बातों का सिलसिला ऐसे ही बढ़ता हुए और समय का अभाव देखते हुए स्याणा ने उनको राय दी कि - " देखो भई ऐसा है जो निर्णय लिया गया था उसके चलते आज तो तुम भूल जाओ लेकिन आज शाम को सब गांव के सम्मानित लोग भी यही है इसलिए तुम सब लोग शाम को आओ और एक मीटिंग रखते हैं उसमें जो सबका निर्णय होगा वही तब तुम सबको मानना पड़ेगा।"  उन लोगों ने भी ज्यादा बहस करना ठीक नहीं समझा और हामी भरते हुए अलविदा ली। हम लोग भी वहां से आगे बढ़ दिए और वही से नीचे पहाड़ी से उतरने लगे क्योंकि उनके घर उसी तरह को पड़ते थे जो कि गांव से कुछ दूरी पर बने हुए थे। मैं उनको आपस में बातचीत करते हुए जाता देखकर यहीं सोच रहा था कि ये नहीं सुधरने वाले, साले कुछ की वजह से बाकी सब भी पिस रहे हैं अब बताओ आज तो ये मंगरू भी ऐसे लग रहा था मानों कोई भीगी बिल्ली हो। आखिर इनमें ऐसी भी क्या आन पड़ी थी जो ये दुबारा आ गए उसी मजदूरी और कष्ट भरे जीवन जीने के लिए। अच्छा भला इस जातिगत, छुआछूत जैसी बीमारी से छुटकारा मिल रहा था लेकिन ये मूर्ख है कि खुद ही इस बंधन में बंधे रहना चाहते हैं। मैंने पीछे मुड़कर देखा, उनके वह हँसते हुए चेहरे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो विजय की आस लिए हुए खुशी खुशी आपस में बात करते हुए अपने घर की ओर चल पड़े हैं। हम भी चोटी के इस पार आ गए ओर वह लोग मेरी नजरों से ओझल हो चुके थे। उस रात मेरे मन में कई प्रश्न एक साथ बार - बार कौंध रहे थे - "आखिर जिस जातिगत भेदभाव की स्वतंत्रता की बात अम्बेडकर जी ने की है क्या वे असल मायने में वाकई इन दलितों को चाहिए भी अथवा नहीं? क्या उनका कभी उत्थान होगा भी या नहीं क्योंकि ये तो स्वयं ही अभी तक इस से स्वयं को छुटकारा नहीं दिला पाए हैं। क्या कभी ऐसा दिन भी आएगा जब मैं गांव आऊं और तब मैं इनको व्यर्थ में हमारी खेती करते हुए या हमारी सेवा, मजदूरी करते हुए और उनका शोषण होते हुए देखने के बजाए इनको खुशी- खुशी अपने परिवार के लिए काम करते हुए और अपनी एक स्वतंत्र छवि लिए हुए गर्व के साथ चलते हुए देख सकूंगा। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी क्या वाकई गांव समाज में पूर्णतः दलितों को स्वतंत्रता मिल पाई है? इसी तरह के  कई सारे प्रश्न मेरे मन में उठ रहे थे जिनका मेरे पास शायद भविष्य में कोई जवाब हो। फिर न जाने कब दिन भर की थकान मेरी नींद में परिणित हो गई।

उधर डूम का नेता ' मंगरू' भी आया था जो एक हाथ में कुल्हाड़ी लिए और उसको अपने कंधे में रखकर दूसरे हाथ से मुंह में बीड़ी सुलगाता हुआ बैठा था, वह बोला - " अरे ठाकुर साहब ऐसा भी क्या है, हम तो नीच जात के है हमसे तो भूल चुक हो ही जाती है, आप भी हम डूम,चमारों की बातों का बुरा मान गए जिनकी कोई बिसात ही नहीं है... उसकी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि गांव का एक हट्टा कट्टा आदमी बोला - " क्यों बे मंगरू, आज तेरी अकड़ कहां गायब हो गई, उस दिन तो मीटिंग में बहुत उछल रहा था। चलो जाओ यहां से हमें नहीं है अब तुम्हारी जरूरत।"  बातों का सिलसिला ऐसे ही बढ़ता हुए और समय का अभाव देखते हुए स्याणा ने उनको राय दी कि - " देखो भई ऐसा है जो निर्णय लिया गया था उसके चलते आज तो तुम भूल जाओ लेकिन आज शाम को सब गांव के सम्मानित लोग भी यही है इसलिए तुम सब लोग शाम को आओ और एक मीटिंग रखते हैं उसमें जो सबका निर्णय होगा वही तब तुम सबको मानना पड़ेगा।"  उन लोगों ने भी ज्यादा बहस करना ठीक नहीं समझा और हामी भरते हुए अलविदा ली। हम लोग भी वहां से आगे बढ़ दिए और वही से नीचे पहाड़ी से उतरने लगे क्योंकि उनके घर उसी तरह को पड़ते थे जो कि गांव से कुछ दूरी पर बने हुए थे। मैं उनको आपस में बातचीत करते हुए जाता देखकर यहीं सोच रहा था कि ये नहीं सुधरने वाले, साले कुछ की वजह से बाकी सब भी पिस रहे हैं अब बताओ आज तो ये मंगरू भी ऐसे लग रहा था मानों कोई भीगी बिल्ली हो। आखिर इनमें ऐसी भी क्या आन पड़ी थी जो ये दुबारा आ गए उसी मजदूरी और कष्ट भरे जीवन जीने के लिए। अच्छा भला इस जातिगत, छुआछूत जैसी बीमारी से छुटकारा मिल रहा था लेकिन ये मूर्ख है कि खुद ही इस बंधन में बंधे रहना चाहते हैं। मैंने पीछे मुड़कर देखा, उनके वह हँसते हुए चेहरे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो विजय की आस लिए हुए खुशी खुशी आपस में बात करते हुए अपने घर की ओर चल पड़े हैं। हम भी चोटी के इस पार आ गए ओर वह लोग मेरी नजरों से ओझल हो चुके थे। उस रात मेरे मन में कई प्रश्न एक साथ बार - बार कौंध रहे थे - "आखिर जिस जातिगत भेदभाव की स्वतंत्रता की बात अम्बेडकर जी ने की है क्या वे असल मायने में वाकई इन दलितों को चाहिए भी अथवा नहीं? क्या उनका कभी उत्थान होगा भी या नहीं क्योंकि ये तो स्वयं ही अभी तक इस से स्वयं को छुटकारा नहीं दिला पाए हैं। क्या कभी ऐसा दिन भी आएगा जब मैं गांव आऊं और तब मैं इनको व्यर्थ में हमारी खेती करते हुए या हमारी सेवा, मजदूरी करते हुए और उनका शोषण होते हुए देखने के बजाए इनको खुशी- खुशी अपने परिवार के लिए काम करते हुए और अपनी एक स्वतंत्र छवि लिए हुए गर्व के साथ चलते हुए देख सकूंगा। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी क्या वाकई गांव समाज में पूर्णतः दलितों को स्वतंत्रता मिल पाई है? इसी तरह के  कई सारे प्रश्न मेरे मन में उठ रहे थे जिनका मेरे पास शायद भविष्य में कोई जवाब हो। फिर न जाने कब दिन भर की थकान मेरी नींद में परिणित हो गई। 

  

1
रचनाएँ
गाँव का डूम
0.0
इस पुस्तक के माध्यम से आपको ग्रामीण जीवन में वर्तमान में होने वाले जातिगत भेदभाव की स्थिति को दर्शाया गया है। क्या वास्तव में डूम ( दलित) जाति के लोग इस भेदभाव से बचना चाहते भी हैं या वे इसमें खुश हैं। देखिए एक झलक इस कहानी में, जहां आपको एक गांव के डूम जाति के लोगों की कहानी को दर्शाया गया है।

किताब पढ़िए