अंतिम सम्राट पृथ्वीराज चव्हाण की सन 1192 में तराइन के द्वितीय युद्ध में मोहम्मद गोरी के हाथों हुई पराजय ने भारत का इतिहास ही बदल दिया । कन्नौज के राजा जयचंद के विश्वासघात और पृथ्वीराज चव्हाण की अदूरदर्शिता ने भारत के भाग्य में गुलामी की दास्तान लिख दी । राजपूत राजा उदारवादी नीति और पराक्रम को ही आधार बनाये रहे जबकि तुर्क साम, दाम, दंड और भेद के आधार पर राज्य हथियाते रहे । ना कोई लोक नीति और ना कोई सार्वभौमिक सिद्धांत । बस एक ही नीति और एक ही सिद्धांत था । नृशंसता, क्रूरता और बर्बरता के साथ हिंदुओं का दमन । उनका सिद्धांत था कि इतने बर्बर बनो कि हिंदू सिर उठाने और तुर्कों का सामना करने का साहस ही नहीं कर सके । इसके लिये ऐसे ऐसे अत्याचार किये गये कि सात पुश्तें भी कांप जायें । इस नीति का असर देखने को भी मिल रहा था । जैसे ही तुर्कों के आक्रमण का समाचार मिलता हिन्दू राजा युद्ध करने के बजाय भाग खड़े होते या आत्म समर्पण कर देते । इस प्रकार उत्तर भारत पर तुर्कों का तलवार और दमन के बल पर आधिपत्य हो गया ।
मोहम्मद गोरी ने दिल्ली विजय के पश्चात कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का राज्यपाल बना दिया था । बाद में मोहम्मद गोरी की मृत्यु होने पर कुतुबुद्दीन ऐबक ने खुद को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया । मजे की बात यह है कि कुतुबुद्दीन ऐबक के उत्तराधिकारी अयोग्य सिद्ध हुये मगर उनका भी विरोध करने की हिम्मत हिंदू राजाओं ने नहीं की । कुतुबुद्दीन ऐबक के "गुलाम" इल्तुतमिश ने दिल्ली की गद्दी हथिया ली । इस प्रकार गुलाम वंश की नींव पड़ी ।
यह घोर अराजकता का दौर था । जिसके पास तलवार की ताकत थी गद्दी पर वही बैठता था । उसका शासन निरंकुश होता था । उसे मनमाने अत्याचार करने का हक था । जनता को लूटना , महिलाओं के साथ बलात्कार करना , उन्हें गुलाम बना कर हरम में भोग विलास का साधन बनाना आम बात थी । लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया । बेचारी प्रजा भेड़ बकरियों की तरह हांकी जा रही थी । दिल्ली पर अमीरों, मुल्लों मौलवियों और काजियों का पूर्ण अधिकार था । वे जो चाहते थे, करते थे । उन पर किसी प्रकार की कोई रोक टोक नहीं थी । हिंदुओं का सार्वजनिक अपमान किया जाता था । हिन्दू धर्म और संस्कृति का नाश होने का काल था वह ।
इल्तुतमिश के अत्तराधिकारी भी अयोग्य साबित हुये । कुछ सालों के लिये इल्तुतमिश की पुत्री रजिया दिल्ली की सुल्तान बनी थी । वह पहली महिला सुल्तान थी लेकिन इस्लामी कट्टरपंथियों, अमीरों और तुर्क सरदारों को एक औरत के अधीन काम करना मंजूर नहीं था । इसलिए इन सबने मिलकर रजिया सुल्तान की हत्या कर दी और फिर से एक गुलाम "बलबन" को दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया ।
इस प्रकार सन 1192 से लेकर सन 1287 यानि बलबन की मृत्त्यु तक दिल्ली पर "गुलामों" का ही शासन रहा । यह उठापटक का दौर था । जब भी कोई गुलाम सुल्तान बनता वह जनता को लूटता , जबरन धर्म परिवर्तन करवाता और अपनी सत्ता कायम रखने के लिए अमीरों (पदाधिकारी ) , मौलवियों और काजियों को खुली छूट देता । विरोधियों का बर्बरतापूर्वक दमन करता । लूटमार करने के अलावा और कोई काम नहीं था शासक वर्ग का । अनवरत युद्धों के कारण सेना और सरदारों को धन की आवश्यकता होने लगी थी जो प्रजा को लूटकर ही मिल सकता था । जनता त्राहि त्राहि करने लगी थी मगर कोई उम्मीद की किरण नजर नहीं आ रही थी कहीं से भी ।
लूट में केवल धन दौलत ही नहीं बल्कि स्त्रियों को भी लूटा जाता था । सुंदर स्त्रियों को तलवार के बल पर हथियाया जाने लगा और इस तरह अमीरों के हरम में सैकड़ों की संख्या में हिन्दू स्त्रियां गुलामों की तरह रहने लगीं थीं । अपने मुकद्दर पर आंसू बहाने के सिवाय और क्या कर सकती थीं वे ?
सन 1290 में जलालुद्दीन फिरोजशाह खिलजी ने बलबन के उत्तराधिकारियों का वध कर के दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर लिया था । जलालुद्दीन फिरोज किसी शाही कुल से संबंधित नहीं था । दरअसल खिलजी तुर्कों का एक कबीला था जो अफगानिस्तान में रहता था । जलालुद्दीन फिरोज खिलजी उस समय कबीलों में लूट पाट करता था । बाद में वह बलबन की सेना में भर्ती हो गया । बलबन ने उसकी ताकत और वफादारी देखकर उसे अपना मुख्य अंगरक्षक बना लिया । यहीं से जलालुद्दीन फिरोजशाह खिलजी बलबन की निगाहों में चढने लगा । बाद में जलालुद्दीन फिरोजशाह खिलजी को बलबन ने पंजाब का राज्यपाल बना दिया । ऐसे में जलालुद्दीन खिलजी ने अपनी ताकत बढा ली और बलबन के कमजोर उत्तराधिकारियों को परास्त कर दिल्ली का राज्य हड़प लिया । सन 1290 में जलालुद्दीन खिलजी 70 वर्ष की उम्र में दिल्ली का सुल्तान बना और इस प्रकार से एक नया "वंश" खिलजी वंश की स्थापना हुई ।
जलालुद्दीन खिलजी एक कमजोर शासक था । वह बहुत अधिक धर्म भीरू भी था । उसे मुसलमानों का खून बहाने से डर लगता था क्योंकि सभी मुसलमान "खुदा के बंदे" थे और वह "खुदा के बंदों" को कैसे मार सकता था ? इसके लिये "काफिर" थे ना । उनका वध करना तो "नेक काम" बताया गया था मौलवियों द्वारा । इसलिए उसके राज्य में अमीर के पद पर बैठे बड़े बड़े मुसलमान निरंकुश हो गये थे । उन्हें पता था कि सुल्तान मुसलमानों के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई नहीं करते हैं इसलिए वे मनमानी करने लगे थे और हिन्दुओं पर अधिक अत्याचार करने लगे थे । बहुत से अमीरों ने तो बगावत भी कर दी थी मगर सहधर्मी होने के कारण जलालुद्दीन खिलजी ने उन्हें कोई दंड नहीं दिया । इससे उनका होंसला और बढ गया था । ऐसे में अलाउद्दीन खिलजी का प्रादुर्भाव हुआ ।
क्रमश :
श्री हरि
12.10.22