मैं हवा हूँ सुनाती अपनी बात
पानी की तरह मैं भी बहती थी मुफ़्त
प्रदूषण का धुआँ बना कर उड़ाते रहे लोग
रफ़्ता रफ़्ता घटती रही मैं रोज़
अपने ही विनाश को बुलाते गये लोग
जंगल उजाड़े
खेत खलिहान सब उजाड़े
पेड़ो की जगह
ईंट कांक्रीट के जंगल बनाते रहे रोज़
ज़िंदगी और मौत दोनों में हूँ मैं
तुम बताओ तुम मौत क्यो चुनते रहे रोज़
कल तक तो पानी ही ख़रीद के पी रहे थे
आज तुम मौत के इतने करीब आ गये
की मुझे भी ख़रीद कर पी रहे
मुझे भी ख़रीद कर जी रहे......
-अश्विनी कुमार मिश्रा