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इंतज़ार.

13 अक्टूबर 2021

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इंतज़ार,,,, ,,, ब्रजमोहन पाण्डेय
उनकी जुल्फें घटायें बनकर हवा मे जैसे बहक रही है
खिले बदन से हिना की खुशबू ठहर ठहर कर महक रही है

खिड़कियों से कभी वो छुपके , इधर उधर है घुमाती पलकें
कभी उंगलियाँ शलाखें पकड़ी कभी उंगलियाँ छुपाती आंखें
किसी की आहट पर चौकती है, बेचैन है कुछ परख रही है
उनकी जुल्फें घटायें बनकर हवा मे जैसे बहक रही है.

ना जाने कब वो किधर सेआये, पलक झपकते निकल न जाये
शरम की डोरी से बांध ली है, राजे हसरत छुपे छुपाये
अभी तो मिलना नया नया है, अभी मुहब्बत नयी नयी है
उनकी जुल्फें घटायें बनकर हवा मे जैसे बहक रही है.

कैसे करके गये वो वादे, भोले मन में भरे इरादे, 
शायद भरोसा उसे है दिल मे, कभी उन्हें भी जगेगी यादे.
कभी तो आयेंगे इस गली वो, तरसतीआँखों बरस रही है.
उनकी जुल्फें घटायें बनकर हवा मे जैसे बहक रही है.

कभी तो मन में ये सोचतीहै, शायद खता हमसे होगयी है
खुद ही चंचल मनमे उलझी, तडप रही है खोईखोई है.
लो आगये वो कहते कहते, खुद ही खुद से लिपट रही है.
उनकी जुल्फें घटायें बनकर हवा मे जैसे बहक रही है.,,,,,, 

ब्रजमोहन पाण्डेय.





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वाह बहुत खूबसूरत पंक्तियां लिखीं आपने सर ✍️✍️👌👌👌👌💯💯💯💯💯😊🙏

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