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जननायक

5 दिसम्बर 2021

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यूँ तो इस विशाल धरा पर रोज लाखों मनुष्य जन्म लेते हैं और लाखों मर जाते हैं। पर उनमें कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपने साहस की स्याही से पुरुषार्थ के पृष्ठों पर शौर्यगाथा लिख जाते हैं और हमेशा के लिए हमारे स्मृतियों पर बस जाते हैं।

ऐसे ही एक महामनुज थे जननायक बिरसा मुंडा। भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। वे सही मायने में पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य और स्वामी विवेकानंद थे।

महानायक बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के मुंडा जनजाति परिवार, सुगना और करमी के घर हुआ था। उस समय अंग्रेजों द्वारा चालाकी से आदिवासियों का धर्म परिवर्तन कर, उन्हें हिन्दू से ईसाई बनाया जा रहा था। उनके इस मायाजाल में फँसने वालों में बिरसा मुंडा के माता-पिता भी थे। अतः बचपन में उन्हें उनके पिता ने मिशनरी स्कूल में भर्ती कराया जहाँ उन्हें ईसाइयत का पाठ पढ़ाया गया। बाद में उन्होंने वह स्कूल छोड़ दिया और हिन्दू व ईसाई धर्म का बारीकी से अध्ययन किया। इस अध्ययन से वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आदिवासी समाज मिशनरियों से भ्रमित है और हिन्दू धर्म को ठीक से न तो समझ पा रहा है, न ग्रहण कर पा रहा है।
1890 के आसपास बिरसा का झुकाव वैष्णव सम्प्रदाय की ओर गया। उसके बाद वो अपने आस पास के लोगों में जनजागरण लाने का कार्य करने लगे। जो आदिवासी किसी महामारी को दैवीय प्रकोप मानते थी उनको वे महामारी से बचने के उपाय समझाते। मुंडा आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने बाघ के खाए जाने को ईश्वर की मर्ज़ी मानते, बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है। इस तरह बिरसा अब धरती आबा यानी धरती पिता हो गए थे। धीरे-धीरे बिरसा का ध्यान मुंडा समुदाय की ग़रीबी की ओर गया। आदिवासियों का जीवन तब अभावों से भरा हुआ था। उनके पास न खाने को खाना था न पहनने को कपड़े। एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट’ 1882 ने उनके जंगल छीन लिए थे। जो जंगल के दावेदार थे, वही जंगलों से बेदख़ल कर दिए गए। यह देख बिरसा ने हथियार उठा लिए और उलगुलान शुरू हो गया।

संख्या और संसाधन कम होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया। रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी। बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई। हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े। पर तीर-कमान और भाले कब तक बंदूकों और तोपों का सामना करते ? सैकड़ों लोग बेरहमी से मार दिए गए हालांकि बिरसा वहाँ उनके हाथ न आया। शायद जीते जी बिरसा अंग्रेजों के हाथ आते भी नहीं, पर उनके साथ भी वही हुआ जो ज्यादातर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ हुआ। लालच में आ कर उनके कुछ साथियों ने ही विश्वास घात किया और उन्हें पकड़वा दिया।

अंग्रेज बिरसा मुंडा से काफी डरे हुए थे। उन्हें भय था कि यदि बिरसा मुंडा जेल से छूट गए तो उनके लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो सकती है।
अतः अंग्रेजों ने जेल में उन्हें जहर दे दिया जिस से 9 जून 1900 को वो शहीद हो गए।

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