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कहानी -4 भूतिया बस

10 अक्टूबर 2021

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कहानी -5


         भूतिया बस


यूँ तो वह घर से शाम को अँधेरा होने से पहले ही निकला था लेकिन फिर भी घर से चार किलोमीटर का जंगल और पहाड़ चढ़ने में उसे कोई तीन घण्टे का समय लग गया।


और जब वह ऊपर रोड तक पहुंचा तब तक अँधेरा पूरी तरह घिर आया था।

उसने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा, "अरे साढ़े नौ बजे गए?!! अब तो मुझे कोई वाहन भी नहीं मिलेगा।

उसने अफसोस किया और एक पत्थर पर बैठ गया।


हुआ कुछ ऐसा था कि हरीश को उसके भाई का फ़ोन आया कि कल सुबह तक वह कुछ भी करके दिल्ली पहुंचे क्योंकि कल उसके पिताजी का ऑपरेशन होना है और उन्हें खून की जरूरत भी पड़ेगी।

उसके पिताजी काफी समय से बीमार चल रहे थे और उसका बड़ा भाई उन्हें लेकर इलाज के लिए दिल्ली गया हुआ था।

घर में हरीश उसकी भाभी और बूढ़ी माँ ही थे।


हरीश ने फोन अपनी भाभी को दिया और दोनों ने बात करने के बाद आपस में सलाह की।

"भाभी अब शाम होने वाली है और दिल्ली बहुत दूर है।

फिर भी मै अभी निकल जाता हूँ, आप रास्ते के लिए कुछ खाने का बना दो। और मां को मत बताना नहीं तो चिंता करेगी", हरीश ने कहा।


"ठीक है तुम हरिद्वार हाइवे तक पहुँच जाओगे तो तुम्हे ट्रक या दूसरी कोई गाड़ी मिल जाएगी।

आजकल चार धाम की यात्रा चल रही है रात में भी कई गाड़ियां आती-जाती रहती हैं", उसकी भाभी ने कहा और उसके लिए पराँठे बनाने लगी।


मई के आखिरी दिन चल रहे थे, शाम को सात बजे तक ठीक-ठाक उजाला रहता था।

हरीश ने अपना छोटा सा बैग उठाया और निकल पड़ा जँगल के रास्ते।

उनका गाँव रुद्रप्रयाग जिले में मेन रोड से कोई  चार-पांच किलोमीटर नीचे था।

रोड तक आने के लिए कच्ची पगड़न्ड़ी थी जो चीड़ के घने जंगल से होकर आती थी।

हरीश के पिता जी  'रुद्रनाथजी' के बहुत बड़े भक्त थे, और उनके साथ ही हरीश और उसका भाई भी मन्दिर में सेवा  करते थे। हरीश ने घर में रखे रुद्रनाथ जी के विग्रह के सामने दिया जलाया और अपनी तथा अपने पिताजी की सलामती के लिए प्रार्थना की।

जैसे ही हरीश जँगल में पहुंचा अचानक बहुत तेज़ हवा चलने लगी और घना अँधेरा छा गया। चीड़ की पत्तियां उस तेज हवा में उड़ने लगीं और कुछ ही देर में पगड़न्ड़ी दिखाई देनी बन्द हो गयी।

हरीश की उम्र अभी सोलह-सत्रह साल की ही थी वह इस मंजर से घबरा तो रहा था लेकिन लड़कपन के जोश में उसने चलना जारी रखा।

एक बार फिर हरीश ने सच्चे मन से हाथ जोड़कर रुद्रनाथ जी को याद किया और आगे बढ़ गया।

कुछ दूर चलने पर हरीश को जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई उसे रास्ता दिखा रहा है।

उसे नहीं पता था कि वह किस ओर जा रहा है, लेकिन वह तेजी से चल जा रहा था।

और अब वह उस सड़क पर एक पत्थर पर बैठा हुआ था।

उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे यहाँ तक पहुंचने में ढाई-तीन घण्टे कैसे लगे जबकि उसका घर से रोड तक आने का समय ज्यादा से ज्यादा एक-डेढ़ घटा था।


हरीश को वह रोड भी जानी पहचानी नहीं लग रही थी ये कोई बहुत चौड़ी रोड थी और बहुत ऊँचाई पर थी।

इस रोड के एक ओर ऊँचा पहाड़ था और दूसरी ओर बहुत गहरी खाई।


हरीश को आये कोई दस-पन्द्रह मिनट ही हुए होंगे, अभी वह कुछ सोच ही रहा था कि सामने मोड़ से एक बस के हॉर्न की आवाज आई।

हरीश उठकर खड़ा हो गया और लिफ्ट मांगने के लिए हाथ हिलाने लगा।


उसे सामने से दो लाइट्स दिखयी दे रही थीं, उसने जोर जोर से हाथ हिलाना शुरू कर दिया।

चरर्रर्रर!!!

बस उसके पास आकर  चरर्रर्रर की तेज आवाज करती हुई रुक गयी।

वह दौड़ कर बस  के पास आया बस बहुत पुरानी लग रही थी उसका पेंट मिट चुका था और उसपर लगा लाल-लाल जंग इस अंधेरे में भी नजर आ रहा था।

हरीश तेजी से खिड़की की तरफ लपका, बस की खिड़की भी टूटी हई थी।

उसके अंदर एक बहुत हल्की लाइट जल रही थी, हरीश जल्दी से अंदर चढ़ा और उसके चढ़ते ही बस चल पड़ी।


बस लगभग खाली थी कंडक्टर और ड्राइवर के अलावा कुछ दस-बारह लोग ही बस में थे और ज्यादातर सीटें खाली थीं।


हरीश एक पूरी खाली सीट पर खिड़की के पास बैठ गया।


बस के सभी यात्री और कंडक्टर की आँखे खुली हुईं थीं, लेकिन उनमें से किसी ने भी इसे देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी।

उसने बहुत ध्यान से उन सबको देखा वे सब ऐसे लग रहे थे जैसे आंखें खोल कर सो रहे हों।

हरीश को बहुत अजीब लगा कि कैसे लोग हैं जो आंखें खोल कर सो रहे हैं।


कुछ देर बाद वह उठकर कंडक्टर के पास आया उसने उसे आवाज लगाई, "दाज्यू टिकिट बना दीजिये", लेकिन कंडक्टर आंखें खोले शून्य में ही देखता रहा उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

"अरे ये सब पुतले हैं क्या?", हरीश ने अपने मन में सोचा।

अब वह घूमकर ड्राइवर के पास गया।

ड्राइवर की स्थिति भी बिल्कुल बैसी ही थी। उसकी आंखें भी शून्य में टिकी हुई थीं, उसके हाथों के अलावा बाकी कोई अंग हरकत नहीं कर रहा था।


गाड़ी की रफ्तार भी बहुत तेज़ थी लेकिन वह न तो ब्रेक लगा रहा था और ना ही गियर बदल रहा था।


अब हरीश को पहली बार डर लगा, उसके रोंगटे खड़े हो गए।

उसे लगा कि कुछ तो विचित्र घट रहा है उसके साथ।

उसने खिड़की के बाहर झांक कर देखा, वह गाड़ी जैसे हवा में उड़ रही थी।


"रोको!!!@...", हरीश की डर के मारे चीख निकल गयी।

तभी उसे भिनभिनाती हुई ऐसे आवाज आई जैसे हज़ारों मधुमक्खी एक साथ भिनभिना रही हों।


उसने ध्यान से देखा, बस में बैठा हर आदमी हँस रहा था और उनके मुँह से हँसने की बहुत धीमी आवाज आ रही थी।

उनकी आंखें अभी भी शून्य में ही देख रही थीं और उनके चेहरे के भाव भी नहीं बदले थे।


हरीश अब डरकर जोर से चिल्ला रहा था, "बस रोको.. उतारो मुझे..

वह बस से कूदना चाहता था लेकिन इतनी तेज भागती बस से कूदना भी उसके लिए आत्महत्या करने जैसा ही था।


वह बस में आगे पीछे भाग रहा था और उनके हँसने की आवाज अब तेज़ होती जा रही थी।


काफी देर ऐसे ही भागने के बाद अचानक फिर, "चिरर्रर!!!" की तेज आवाज के साथ वह बस रुकी।

हरीश जल्दी से अपना बैग लेकर नीचे उतर गया।


"उधर चले जाओ...! " तभी उसने एक आवाज सुनी, उसने पलट कर देखा, कंडक्टर उसे एक तरफ को इशारा करके बता रहा था।


हरीश को कुछ समझ नहीं आया कि उसके साथ क्या हो रहा है लेकिन फिर भी वह उसकी बतायी दिशा में चल दिया।

कोई आधा घण्टा उस पहाड़ से नीचे उतरने पर उसे बहुत सारी लाइट्स नजर आने लगीं जैसे कि बहुत बड़ा शहर हो।


उसने अपनी गति और बढ़ा दी और जब वह नीचे उतर कर शहर में पहुँचा तो उसे पता चला कि ये ऋषिकेश है।


उसने पूछताछ की तो उसे रात दो बजे दिल्ली के लिए ट्रेन होने की जानकारी मिली जो स्पेशल ट्रेन थी और चारधाम यात्रा के लिए चलाई गई थी।


उसने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा रात का एक बजकर बीस मिनट हो गए थे अर्थात उसके पास स्टेशन पहुँचकर गाड़ी पकड़ने के लिए पर्याप्त समय था।


हरीश टिकिट लेकर गाड़ी में बैठ गया, वह पूरे रास्ते उस बस के बारे में ही सोच रहा था।

अगले दिन वह समय से दिल्ली पहुंच गया जहाँ उसके पिताजी का सफल ऑपरेशन हुआ।

इन दोनों ही भाइयों को दो-दो यूनिट खून देना पड़ा था।


शाम को होटल में चाय पीते समय हरीश की नज़र सामने पड़े अखबार पर पड़ी उसमे मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था,


"तीस साल पहले" खाई में गिरी बस कल रात रुद्रप्रयाग ऋषिकेश मार्ग पर दिखी।


उसे पढ़कर हरीश के हाथ से चाय का गिलास छूट गया और वह अपने होश खोकर जमीन पर गिर गया।


दो दिन बाद नार्मल होने पर हरीश सोच रहा था कि "ये सब उसके साथ क्यों हुआ? ये जरूर भगवान रुद्रनाथ जी की माया थी जो उन्होंने इनके पिताजी को बचाने के लिए की थी।


तबसे हरीश हर साल चारधाम यात्रा में भगवान रुद्रनाथ जी के नाम से भंडार लगाता है।

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सन्दर्भ:- सन्दर्भ:-इस पुस्तक में पाँच सस्पेंस थ्रिलर एवं हॉरर विधा की कहानियाँ सम्मलित हैं।  कहानियां विशुद्ध मनोरंजन की दृष्टि से लिखी गयी मौलिक कहानियां हैं एवं किसी भी जीवित अथवा मृत व्यक्ति एवं घटना से इनका कोई सम्बंध नहीं है। प्रस्तावना:- भूत, प्रेत, आत्मा एवं पारलौकिक शक्तियों के बारे में जानने के लिए मानव मन में हमेशा ही जिज्ञासा रही है, वह हमेशा सोचता है कि क्या यह सच में होते हैं अथवा केवल एक मिथक है। अगर कहीं भी भूत-प्रेत का जिक्र आता है तो हमारे मन में दो तरह के भाव आते हैं, पहला:-भय, एवं दूसरा:- क्या भूत सच में होते हैं। इस विषय पर समय-समय पर अनेको लोग शोध भी करते है और कई देशों की सरकारें कुछ स्थानों को बंद करके इस बात की पुष्टि भी करती हैं कि कुछ तो है, कोई अदृश्य पारलौकिक शक्ति, या शायद भूत-प्रेत है। यहाँ मैं किसी शोध अथवा किसी विचार का समर्थन नहीं करता हूँ अपितु आपके मनोरंजन के लिए लाया हूँ कुछ अनसुनी कल्पना कथाएँ एवं कुछ सत्य कथाओं पर आधारित कहानियां, अब मेरे प्रिय पाठकों को तय करना है कि उन्हें कौन सी कहानियाँ सत्य लगीं एवं कौन सी मेरी परिकल्पना मात्र। एवं मैं अपने उद्देश्य अर्थात उनके मनोरंजन में कितना सफल हुआ। यदि किसी पाठक के पास कोई सत्य घटना हो जिसपर वह कहानी पढ़ना चाहते हों तो वह घटना मुझे बता सकते हैं। आपका नृपेंद्र शर्मा "सागर"

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