शापित पहाड़ी
वह अपनी मस्ती में घूमते-घूमते पहाड़ों में बहुत दूर निकल आया था।
ऐसे वह कोई पर्वतारोही तो नहीं था लेकिन एडवेंचर का उसे बहुत शौक था। उसी के चलते जगह-जगह जँगल, पर्वत, नदी, झीलें आदि जैसे उसे हमेशा अपने पास बुलाते रहते थे।
इस समय वह उत्तराखंड की सुदूर दुर्गम पहाड़ियों पर फोटोग्राफी करते हुए घना जंगल पार करके काफी दूर निकल आया था।
ये स्थान अन्य पहाड़ी स्थलों से काफी अलग था जिसमें एक बहुत बड़ा और घना मैदानी जँगल था उसके बाद एक छोटी हरीभरी पहाड़ी, उसके बाद एक बहुत गहरी नदी जिसकी चौड़ाई अपेक्षाकृत कम थी,उसके बाद फिर एक घास का मैदान और उसके पीछे गगनचुंबी पर्वतश्रंखला।
वह अपनी धुन में चलता इस सुरम्य दृश्य में ऐसा खोया की उसे ध्यान ही नहीं रहा कि सूर्य कब रँग बदल कर लाल हो गया था। और अब अंधेरा घिरने लगा था।
अभी वह अपनी धुन में जँगल पार करके उस छोटी पहाड़ी को देख ही रहा था कि अचानक उसे ऐसा लगा जैसे कोई छोटा बच्चा कोमल हँसी बिल्कुल उसके पीछे हँस रहा है। उसे उस हँसी में एक खनक के साथ ही उदासी का पुट भी सुनाई दिया। वह अब सपनी तन्द्रा से बाहर आ चुका था। उसने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं, वह उस हँसी के सोर्स को तलाश कर रहा था।
अब वह उस हँसी की आवाज का पीछा करते हुए एक ओर बढ़ने लगा।
अब फिर उसका सारा ध्यान उस आवाज पर ही था। उसे अब अपने आस-पास कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। उसका मस्तिष्क अब उस आवाज को सुनकर केवल उसकी दिशा तय करने में व्यस्त था।
अपनी इस धुन में वह ये भी नहीं देख पाया कि जिस मोड़ से अभी-अभी वह बाएं मुड़ा है, उस पर 'हॉन्टेड एरिया' का पुराना बोर्ड लगा हुआ है।
अब वह पहाड़ी के बिल्कुल नज़दीक पहुँच चुका था। उसने सामने देखा, 'एक छोटी बच्ची जो कोई सात इस आठ साल की होगी। हाथ से सिला मोटे कपड़े का काला फ्रॉक पहने हुए थोड़ा झुकी हुई पहाड़ी पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी। इसने उसे आवाज लगाई, "अरे बेटा आप कौन हो? और इतनी रात में अकेले यहाँ क्या कर रहे हो?"
बदले में इसे उस बच्ची की हँसी के अलावा कुछ सुनाई नहीं दिया। वह तेज़ी से पहाड़ी पर ऊपर चढ़ाई कर रही थी।
अब इसे घबराहट हुई कि शायद यह बच्ची परिवार से दूर गलती से निकल आयी है।
"अरे बेटा!! रुको। सुनो मेरी बात, ऐसे अकेले मत दौड़ो। मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ देता हूँ। इसने तेज़ आवाज में कहा।
बदले में इसे बच्ची की हँसी की आवाज में घुली हुई एक गम्भीर और कुछ अलग आवाज सुनाई दी, "आ जाओ फिर!!"
"ठीक है आता हूँ लेकिन तुम ठहतो तो।" इसने कहा और तेज़-तेज़ कदमों से पहाड़ी चढ़ने लगा।
यह अपनी तरफ से लगभग दौड़ ही रहा था लेकिन वह बच्ची सामान्य चाल से चलने के बावजूद इसकी पहुँच से दूर थी।
अचानक इसे लगा कि सामने पहाड़ी खत्म हो रही है और नीचे खाई है।
इसने घबराहट में आवाज लगाई, "रुक जाओ, आगे खाई है, तुम गिर जाओगी।
इसकी आवाज पर बच्ची पल भर के लिए ठिठकी लेकिन जैसे ही ये उसके पास पहुँचा, उसने फिर एक जम्प लगा दी और ये उसे पकड़ने की झोंक में अपना संतुलन खो बैठा और फिसलकर नीचे खाई में गिरने लगा।
अचानक इसने देखा कि वह बच्ची उड़ते हुए ऊपर जा रही है। अब उसके हँसने की आवाज बहुत कर्कश और डरावनी थी।
वह बहुत जोर-जोर से हँस रही थी। अब उसका हुलिया भी एकदम बदल गया था। उसके शरीर से माँस गायब हो चुका था और उसका चेहरा बहुत डरावना हो गया था।
वह पहाड़ी की चोटी पर जाकर बैठ गयी और तेज़-तेज़ हँसते हुए बोली, "साले सारे मर्द एक जैसे होते हैं। ठरकी सब के सब।" और फिर जोर से हँसने लगी।
नीचे गिरते ही इसने अपनी कमर में लगा कोई बटन दबा दिया था जिससे इसकी सुरक्षा जैकेट में लगा बैटरी चलित ब्लोवर चल गया और इसकी जैकेट में मात्र बीस सेकेंड में ही पर्याप्त हवा भर चुकी थी।
कुछ ही पल में ये नीचे जमीन पर गिरा किन्तु अपनी उस जैकेट की वजह से इसको बहुत मामूली सी चोट लगी। यह कुछ ही पल में उठकर खड़ा हो गया और धूल झाड़ने लगा।
इसे इसकी जैकेट ने बचा लिया था नहीं तो इतनी ऊंचाई से गिरने के बाद तो इसकी हड्डियों का चूर्ण बनना तय था।।
ये किसी तरह सँभलकर उठा लेकिन इसे उस स्थान पर बहुत तीव्र दुर्गन्ध का अहसास हो रहा था।
इसने अपनी आँखों का अँधेरे के साथ सामंजस्य बिठाकर देखा, ये जिस जगह पर था वहाँ बहुत से नरकंकाल पड़े हुए थे। ऊपर से ये उन्हीं कंकालों के बीच में गिरा था। इन कंकालों पर लगे गले-सड़े माँस से ही ये दमघोंटू दुर्गंध उठ रही थी।
दुर्गंध इतनी तीव्र थी कि कुछ ही पलों में इसका दिमाग फटने लगा। उसे उल्टी होने को हो रही थी लेकिन किसी तरह उसने खुद को संभाल लिया।
बहुत ध्यान से देखने पर इसने पाया कि जहाँ यह गिरा है वह एक पत्थर की बहुत बड़ी चट्टान है और उसके नीचे से नदी में पानी बहने की तेज़ आवाज आ रही है।
अब इसका रुख नदी की ओर था। इसके दिमाग में दो चीजें थीं, एक तो ये की ऊपर पहाड़ी पर वह लड़की चुड़ैल बनी बैठी है जो इसको फिर मारने की कोशिश करेगी और दूसरा इस नदी के किनारे अवश्य ही कहीं ना कहीं कोई गाँव होगा।
अब वह नदी के बहाव के साथ-साथ नदी किनारे चलने लगा।
रात गहरी होती जा रही थी, अँधेरा पूरी तरह घिर आया था। इसने अब एक पेड़ से बड़ी लकड़ी तोड़ कर उसे छड़ी बनाया हुआ था और उसी के सहारे अंधेरे में खुद को ठोकर लगने से बचाता है चल रहा था।
करीब दो घण्टे सतत चलने के बाद इसे नदी के दूसरे किनारे पर उम्मीद की रोशनी के रूप में एक टिमटिमाता दिया नज़र आया जो इस बात का संकेत था कि वहाँ अवश्य ही कोई घर है।
थोड़ा आगे बढ़ने पर इसे दूर-दूर छितराये हुए कुछ अन्य प्रकाश बिंदु भी दिखाईदेने लगे।
अब इसकी गति में तेज़ी आ गयी थी। यह लगभग दौड़ता हुआ उस बस्ती की और जा रहा था कुछ ही दूर और जाने पर इसे नदी के दोनों किनारों को मिलाता नदी पर किसी पुल के रूप में रखा एक शहतीर नज़र आया। ये ईश्वर को याद करता हुआ उस पुल से होकर नदी पार कर गया और फिर तेज़ी से दौड़ता हुआ उस बस्ती में पहुँचा।
बस्ती में इसके पहुँचने के कुछ ही देर बाद लोग जाग गए और इसके आस-पास इकट्ठे हो गए। उस समय तक रात के कोई ग्यारह बजे थे।
इसने लोगों के कहने पर पहले अपने कपड़े उतार कर स्नान किया क्योंकि इसमें से भी वही दुर्गंध आ रही थी।
खूब अच्छे से स्नान करने के बाद इसने गाँव वालों का दिया एक कुर्ता और धोती पहन ली। तब तक इसके भोजन और विश्राम का प्रबंध हो चुका था।
लोगों ने इसे सब कुछ भूलकर रात में आराम करने की सलाह दी।
सुबह हो गयी थी, दिन की लाली फैलते ही गाँव वाले उसके साथ घटी घटना को विस्तार से जानने के लिए इसके आस-पास इकट्ठे हो गए थे।
इसने गम्भीर होकर सबको अपने साथ घटी वह घटना बतायी, और ये भी कहा जो चुड़ैल बनकर सारे मर्दो के बारे में उसने कहा था।
"बेटा ये कोई पचास साल पुरानी बात है, तब हमारे गाँव उस पहाड़ी के पीछे ही हुआ करता था। हमारे गाँव का जमीदार लाखन सिंह बहुत दुष्ट और नीच प्रवृत्ति का इंसान था। वह हमेशा नशे में डूबा रहता था। गाँव की सभी बहु बेटियों पर उसकी बुरी नज़र रहती थी।
एक बार वह जंगल में शिकार के लिए गया था। वहीं पड़ोसी गाँव की एक आठ साल की बच्ची अपनी बकरियों के लिए पत्ते तोड़ रही थी।
पता नहीं नशे की अधिकता या उसके नीच चरित्र ने उसे वासना में अंधा बना दिया और वह बुरी नियत से उस लड़की की ओर झपटा।
वह बच्ची उससे बचने के लिए पहाड़ी की और दौड़ी ये ज़ालिम भी उसके पीछे दौड़ा।
वह बच्ची इसकी बुरी नज़र से इसकी नियत भाँप गयी और उसने अपने सम्मान की रक्षा में उस पहाड़ी से नीचे छलांग लगा दी।
जमीदार उस हादसे के बाद चुपचाप अपने घर आ गया। उस बच्ची के परिवार ने उसे बहुत ढूंढा लेकिन उसकी हड्डी भी किसी को नहीं मिली तो लोगों ने मान लिया कि या तो उसे कोई जंगली जानवर खा गया है या फिर वह नदी में वह गयी।
उस घटना के कुछ ही समय बाद जमीदार भी एक दिन पहाड़ी से ठीक उसी जगह से नीचे गिर गया जहाँ से वह बच्ची कूदी थी।
उसके बाद पहाड़ी पर एक सिलसिला शुरू हो गया, जो भी मर्द शाम या शाम के बाद उस पहाड़ी की ओर जाता वह गायब हो जाता। तब सारे गाँव वालों ने अंग्रेज सरकार में इसबातकी शिकायत की और उन्होंने वहाँ एक बोर्ड लगा दिया कि ये जगह भूतिया है और इधर आना मना है।
हमारे बड़े बुजुर्गों ने भी उसे 'शापित पहाड़ी' मानकर वह जगह खाली करके अपना गाँव यहाँ बसा लिया।" गाँव के एक बुजुर्ग ने उसे सारी कहानी बताई।
"क्या उस बच्ची की मुक्ति का कोई उपाय नहीं हो सकता?" उसने प्रश्न किया।
"अब ये तो कोई पुजारी या तांत्रिक ही बता सकता है", गाँव के मुखिया ने जवाब दिया।
शाम हो चली थी ये फिर उसी पहाड़ी के नीचे था और अपनी कल वाली ही दिशा में आगे बढ़ रहा था। कुछ ही देर में इसे वह लड़की नज़र आने लगी।
"रुको!! मेरी बात सुनो", इसने आवाज लगाई।
"आओ पकड़ो मुझे", उस बच्ची ने खिलखिलाते हुए कहा और कल की ही तरह पहाड़ी पर चढ़ने लगी।
"रुक जाओ!, मैं यहाँ तुम्हे पकड़ने या कुछ गलत करने नहीं आया हूँ। मुझे बस इतना बता दो की मैं तुम्हारी मुक्ति के लिए क्या कर सकता हूँ।
"मुक्ति!!!... मेरी मुक्ति..., कुछ नहीं कर सकता तू।
मैं अब अकेली नहीं हूँ। मेरे साथ सैकड़ों अतृप्त आत्माएँ हैं इस पहाड़ी पर। ये वही हैं जिन्हें मैंने मार डाला। ये सब मुझे औरत बनाना चाहते थे मैंने भूत बना दिया सबको। हाहाहाहा..., कुछ नहीं कर सकता तू। चल पकड़ मुझे, अब मुझे इस खेल में मज़ा आता है। मुझे नहीं चाहिए कोई मुक्ति।", वह लड़की डरावना चेहरा बनाये बिल्कुल इसके कान के पास आकर बोली और अगले ही पल भयानक हँसी हँसती हुई आसमान में उड़ने लगी। फिर अचानक इसे लगा कि वह तेज़ी से सिर के बल नीचे गिर रही है।
"अरे!! संभालो खुद को, तुम्हें चोट लग जायेगी", इसने डरते हुए कहा।
"सबकी मुक्ति के लिए महायज्ञ करना होगा", वह गिरते हुए बिल्कुल इसके कान के पास रुकी और ये बोलकर पलक झपकते ही अपने पैरों पर खड़ी हो गयी।
"श्राध्द की मावस को", ये कहकर वह तेजी से मुड़ी और फिर उड़ती हुई उस पहाड़ी की चोटी पर जाकर बैठ गयी।
उस घटना को चालीस दिन हो गए थे, श्राध्द पक्ष की अमावस्या आ गयी थी। आज गाँव वालों के सहयोग और इसके प्रयासों से पहाड़ी पर सभी ज्ञात-अज्ञात आत्मओं के लिए महायज्ञ हो रहा था।
यज्ञ के बीच में इसे ऐसा लगा कि वह खुद इसकी गोद में बैठकर यज्ञ में आहुतियाँ दे रही है। अब वह बहुत मासूम और भोली दिख रही थी।
अचानक उसके चेहरे और भोली मुस्कान खिली और वह इसका गाल चूमकर उठ खड़ी हुई।
कुछ ही देर में वह धुआँ बनकर सदा के लिए अनन्त आकाश में विलीन हो चुकी थी।
इसके चेहरे पर एक अच्छे काम की संतुष्टि भरी मुस्कान थी।
समाप्त
©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद