बेमिशाल हास्यव्यंग्यकार काका हाथरसी
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हाथरस में 18 सितंबर 1906 को वेमिशाल हास्यकार काका हाथरसी का जन्म हुआ। 15 वर्ष की आयु में ही पिता जी के गुजर जाने के बाद काका ने भयंकर ग़रीबी में भी अपना जीवन संघर्ष जारी रखते हुए छोटी-मोटी नौकरियों के साथ ही कविता रचना और संगीत शिक्षा में पारंगता हासिल की।
काका हाथरसी जी का वास्तविक नाम तो 'प्रभूलाल गर्ग' और बचपन से ही उन्हें नाट्याभिनय का शौक होने के कारण उन्होंने एक नाटक में उन्होंने 'काका' का किरदार निभाया था, उस किरदार को प्रभुदयाल गर्ग ने इतनी जीवंतता के साथ निभाया कि वे उसी नाम 'काका' के रूप में प्रसिद्ध हो गए और आजन्म काका हाथरसी कहलाए। काका हाथरसी के कुल 9 कविता संग्रह प्रकाशित हुए – 1. काका की फुलझड़ियाँ 2. काका के प्रहसन 3. लूटनीति मंथन करि4. खिलखिलाहट 5. काका तरंग 6. जय बोलो बेईमान की 7. यार सप्तक 8. काका के व्यंग्य बाण 9. काका के चुटकुले।
काका हाथरसी मूलत: मंचीय कवि रहे और उन्होंने सैकड़ों कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ किया। 1957 में लाल क़िला दिल्ली पर होने आयोजित कवि सम्मेलन में उन्होंने अपनी शैली में काव्य पाठ किया और सम्पूर्ण देश के समक्ष अपनी हास्य कवि पहचान छोड़ दी।
काका जी को 1966 में बृजकला केंद्र के कार्यक्रम में 'कला रत्न' ने नवाजा गया। 1985 में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह द्वारा उन्हें 'पद्मश्री' से नवाजा गया। अमेरिका के वाल्टीमौर में 1989 को काका को 'आनरेरी सिटीजन' के सम्मान से सम्मानित किया गया। काका ने फ़िल्म 'जमुना किनारे' में अभिनय भी किया।
जीवन शक्ति से काका जी के जीवन की लीला भी उसी दिन समाप्त हुई जिस दिन वे इस दुनियां में अवतरित हुए थे अर्थात उनका जन्म 18 सितंबर 1906 को हुआ तथा मृत्यु 18 सितंबर को ही सन 1995 में हुई। आज काका हाथरसी हमारे साथ नहीं हैं परंतु उनकी कविताएं आज भी अवसादपूर्ण वातावरण में भी हमें हंसाती हैं और जीवन का जीवनमयी टॉनिक देती हैं। इसी हास्य के टॉनिक के सहारे काका हाथरसी ने जीवन के कठिन से कठिन दौर को हंसते हुए पार किया तथा जनमानस को भी सदा हंसते रहने का संदेश दिया।
काका हाथरसी जी ने सबसे पहली हास्य कविता अपने मामा के यहां इगलास में रहते हुए एक पड़ोसी वकील साहब पर लिखी-
‘एक पुलिंदा बांधकर कर दी उस पर सील
खोला तो निकले वहां लखमी चंद वकील
लखमी चंद वकील, वजन में इतने भारी
शक्ल देखकर पंचर हो जाती है लारी
होकर के मजबूर, ऊंट गाड़ी में जाएं
पहिए चूं-चूं करें, ऊंट को मिरगी आए’ (http://bharatdiscovery.org/india/काका हाथरसी)
काका साहित्य प्रेमी रचियता होने के साथ-साथ अगाध संगीत प्रेमी भी थे तथा उनका एक और परम शौक था चित्रकारी । उन्होंने कुछ दिनों चित्रशाला भी संचालित की,परंतु धनाभाव में वह नहीं चल सकी तो उन्होंने एक संगीत कार्यालय प्रारंभ किया। इसी कार्यालय से संगीत पर संगीत पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ, जो कि आज भी जारी है। काका की पहली यह कविता इलाहाबाद से छपने वाली पत्रिका गुलदस्ता में छपी।
‘घुटा करती हैं मेरी हसरतें दिन रात सीने में
मेरा दिल घुटते-घुटते सख्त होकर सिल न बन जाए’’
(http://www.jantajanardan.com/NewsDetails/14720/kaka-hathrasi-had-a-charisma.htm)
काका हाथरसी के व्यंग्य और हास्य का परिक्षेत्र बहुआयामी रहा । उन्होंने संत कबीर की भांति प्रत्येक सामाजिक कुरीति पर हास्य के माध्यम से व्यंग्य किया और जनमानस को बुराईयों के प्रति सचेत किया। कुछ उदाहरण अग्रलिखित हैं –
‘’सामाजिक व्यंग्य के क्षेत्र में काका हाथरसी के काव्य में शाश्वत और सामयिक दोनों प्रकार की समस्याएँ प्रस्तुत हुई हैं। उनकी रचनाओं में समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुनीतियों और रूढ़ियों पर करारी चोट की गयी है। कहीं-कहीं हास्य के आवरण में भी व्यंग्य इतना तीक्ष्ण होता है कि वह अपने आलंबन को तिलमिलाकर रख देता है। आधुनिक समाज ऐसी विसंगतियों और विडंबनाओं से भर गया है कि उसका छोटे-से-छोटा घटक भी इन विसंगतियों और विंडबनाओं का प्रतिपालक अथवा उनका कारण बन गया है। इसी कारण सामाजिक क्षेत्र की प्रत्येक व्यंग्योक्ति सामान्यकृत-सी प्रतीत होती है। प्रत्येक व्यक्ति उसको अपने से संबंधित मानता है और चुप रहता है। काका की कलम का कमाल कार से लेकर बेकार तक, शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक, परिवार से पत्रकार तक, विद्वान से गँवार तक, फ़ैशन से राशन तक, परिवार से नियोजन तक, रिश्वत से त्याग तक और कमाई से महँगाई तक देखने को मिलता है। तात्पर्य यह है कि काका ने प्रत्येक क्षेत्र में प्रवेश किया और धड़ल्ले से किया।’ (काका के व्यंग्य वाण: डायमंड पॉकेट बुक्स, 2006)
काका हाथरसी के बारे में सत्य ही कहा है कि -
‘व्यंग्य एक नश्तर है
ऐसा नश्तर, जो समाज के सड़े-गले अंगों की
शल्यक्रिया करता है
और उसे फिर से स्वस्थ बनाने में सहयोग भी।
काका हाथरसी यदि सरल हास्यकवि हैं
तो उन्होंने व्यंग्य के तीखे बाण भी चलाए हैं।
उनकी कलम का कमाल कार से बेकार तक
शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक
विद्वान से गँवार तक
फ़ैशन से राशन तक
परिवार से नियोजन तक
रिश्वत से त्याग तक
और कमाई से महँगाई तक
सर्वत्र देखने को मिलता है।‘ (http://pustak.org/home.php?bookid=4742)
न्याय की कुर्सी पर आसीन न्यायाधीशों और दंडाधिकारियों के कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी काका हाथरसी ने बहुत ही कुशलता के साथ प्रस्तुत किया - के व्यंग्य में
न्याय प्राप्त करने गए, न्यायालय के द्वार
इसी जगह सबसे अधिक, पाया भ्रष्टाचार
पाया भ्रष्टाचार, मिसल को मसल रहे हैं
ईंट-ईंट से रिश्वत के स्वर निकल रहे हैं
कहँ काका, जब पेशकार जी घर को आए
तनखा से भी तिगुने नोट दबाकर लाए
किसी ने कहां है कि जीवन में हमेशा ती सफेद कोट और काले कोट से बचना चाहिए, जो व्यक्ति एक बार बीमार होकर सफेद कोट अर्थात डॉक्टर के पास जाना प्रारंभ कर देता है उसका बुरा हाल हो जाता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति एक बार कोर्ट कचहरी के चक्कर में उलझ जाता है उसका पिंड मरकर भी नहीं छूटता क्योंकि मुकदमें पीढ़ी दर पीढ़ी भी चलते रहते हैं। न जाने कितने लोग कोर्ट कचहरी में इंसाफ की उम्मीद लिए हुए इस दुनिया से विदा हो गए, पर इंसाफ नहीं मिला उन्हें मिली तो बस तारीख और तारीख पर तारीख। पेशकार, वकील, मुंशी, मुहर्रिर और चपरासी सबके लिए फरियादी एक पैसे देने वाला प्राणी होता है जिस ठीक उसी प्रकार वे सब मिलकर दूहते रहते हैं जिस प्रकार लोग गाय, भेंस, बकरी को रोज दूह लेते हैं। काका जी का व्यंग्य देखिए -
प्लीडर, मुंशी, मुहर्रिर, सब निचोड़ लें अर्क
सायल को घायल करे, फायल वाला क्लर्क
फायल वाला क्लर्क, अगर कुछ बच जाएगा
वह चपरासी के इनाम में पच जाएगा
कहँ काका, जो जीत गया सो हारा समझो
हार गया, सो पत्थर से दे मारा समझो (http://pustak.org/home.php?bookid=4742)
अपराधिक गतिविधियों को रोकने तथा समाज में व्याप्त कुव्यवस्था को रोकने का उत्तरदायित्व पुलिस का होता है। परंतु विदित है कि पुलिस विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों का रवैया रक्षक का कम और भक्षक का अधिक देखा जाता है। आम इंसान दुआ करता है कि ईश्वर किसी भी तरह उसे पुलिस से दूर रखे। आम जनता में तो पुलिस विभाग के प्रति इतना भय व्याप्त हो चुका है कि वह मार्ग में भी पुलिस को देख लेता है तो अंदर तक कांप जाता है। उसे लगता है कि कोई चक्कर न पड़ जाए और वह डरते हुए आंख बचा कर वहां से निकल जाना चाहता है। भ्रष्टाचारियों, चोरों, अन्यायियों अथवा अपराधियों को दंडित करनेवाले दंडाधिकारी अथवा पुलिस-कर्मचारी स्वयं अपराध में संलिप्त पाए जाते हैं। हाल में हाथरस शहर के एक छोटे से व्यापारी को पुलिस वालों ने ही आत्महत्या करने के लिए विवश कर दिया और उसने जिलाधिकारी कार्यालय में जाकर अपने आप को समाप्त कर दिया। ये सब काका हाथरसी के काल में भी होता था और आज तो इसका स्तर और अधिक बढ़ गया है। काका जी कहते हैं -
घूरे खाँ के घर हुई, चोरी आधी रात
कपड़े-बर्तन ले गए, छोड़े तवा-परात
छोड़े तवा-परात, सुबह थाने को धाए
क्या-क्या चीज़ गई है, सबके नाम लिखाए
आँसू भरकर कहा, ‘महरबानी यह कीजै
तवा-परात बचे हैं, इनको भी लिख लीजै।
कोतवाल कहने लगा, करके आँखें लाल
‘उसको क्यों लिखवा रहा, नहीं गया जो माल’
नहीं गया जो माल, मियाँ मिमियाकर बोला
‘मैंने अपना दिल हजूर के आगे खोला
मुंशी जी का इंतजाम, किस तरह करूँगा ?
तवा-परात बेचकर ‘रपट-लिखाई दूँगा। (http://pustak.org/home.php?bookid=4742)
हिंदी की दुर्दशा
बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य
सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य
है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा-
बनने वालों के मुंह पर क्या पड़ा तमाचा
कहँ ‘ काका ‘, जो ऐश कर रहे रजधानी में
नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में
पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस
हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस
जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी
इंग्लिश रानी हुई हिंद में, हिंदी बाँदी
कहँ ‘ काका ‘ कविराय, ध्येय को भेजो लानत
अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वकालत। (http://hindisatire.com/हिंदी की दुर्दशा/हाथरसी)
अनुशासनहीनता
बिना टिकट के ट्रेन में चले पुत्र बलवीर
जहाँ ‘मूड' आया वहीं, खींच लई ज़ंजीर
खींच लई ज़ंजीर, बने गुंडों के नक्कू
पकड़ें टी. टी. गार्ड, उन्हें दिखलाते चक्कू
गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार बढ़ा दिन-दूना
प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना
(http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/278/hasya-kavya-kaka-hathrasi.html)
भ्रष्टाचार
राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर
‘क्यू' में धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर
पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला
खड़े रह गये निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला
कहँ ‘काका' कवि, करके बंद धरम का काँटा
लाला बोले - भागो, खत्म हो गया आटा
(http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/278/hasya-kavya-kaka-hathrasi.html)
आपसी संबंधी और व्यवहार, प्रेम इत्यादि पर व्यंग्य-
अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज,
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज
अंतरपट में खोजिए, छिपा हुआ है खोट,
मिल जाएगी आपको, बिल्कुल सत्य रिपोट
अंदर काला हृदय है, ऊपर गोरा मुक्ख,
ऐसे लोगों को मिले, परनिंदा में सुक्ख
अक्लमंद से कह रहे, मिस्टर मूर्खानंद,
देश-धर्म में क्या धरा, पैसे में आनंद
अंधा प्रेमी अक्ल से, काम नहीं कुछ लेय
प्रेम-नशे में गधी भी, परी दिखाई देय
अगर फूल के साथ में, लगे न होते शूल
बिना बात ही छेड़ते, उनको नामाक़ूल
अगर चुनावी वायदे, पूर्ण करे सरकार
इंतज़ार के मजे सब, हो जाएं बेकार
मेरी भाव बाधा हरो, पूज्य बिहारीलाल
दोहा बनकर सामने, दर्शन दो तत्काल
(http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/280/hasya-dohe-kaka-hathrasi.html)
कॉल्ोज के छात्र छात्राओं पर व्यंग्य
फादर ने बनवा दिये तीन कोट¸ छै पैंट¸
लल्लू मेरा बन गया कालिज स्टूडैंट।
कालिज स्टूडैंट¸ हुए होस्टल में भरती¸
दिन भर बिस्कुट चरें¸ शाम को खायें इमरती।
कहें काका कविराय¸ बुद्धि पर डाली चादर¸
मौज कर रहे पुत्र¸ हडि्डयां घिसते फादर।
पढ़ना–लिखना व्यर्थ हैं¸ दिन भर खेलो खेल¸
होते रहु दो साल तक फस्र्ट इयर में फेल।
फस्र्ट इयर में फेल¸ जेब में कंघा डाला¸
साइकिल ले चल दिए¸ लगा कमरे का ताला।
कहें काका कविराय¸ गेटकीपर से लड़कर¸
मुफ़्त सिनेमा देख¸ कोच पर बैठ अकड़कर।
प्रोफ़ेसर या प्रिंसिपल बोलें जब प्रतिकूल¸
लाठी लेकर तोड़ दो मेज़ और स्टूल।
मेज़ और स्टूल¸ चलाओ ऐसी हाकी¸
शीशा और किवाड़ बचे नहिं एकउ बाकी।
कहें 'काका कवि' राय¸ भयंकर तुमको देता¸
बन सकते हो इसी तरह 'बिगड़े दिल नेता।'
(http://kavitakosh.org/kk/कॉलिज स्टूडेंट/काका हाथरसी)
काका हाथरसी जी ने एक ही कविता में कई कई कुरीतियों पर निशाना साधा । देखिए दहेज की बारात कविता जहां सबसे बड़ी सामाजिक बुराई दहेज प्रथा पर व्यंग्य करती है वहीं रेल आदि में बिना टिकट यात्रा करने के दुष्परिणामों को भी सामने लाती है –
जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र
फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र
यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी
बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी
कहँ 'काका' कविराय, लार म्हौंड़े सों टपके
कर लड़ुअन की याद, जीभ स्याँपन सी लपके
मारग में जब है गई अपनी मोटर फ़ेल
दौरे स्टेशन, लई तीन बजे की रेल
तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का
दो मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का
कहँ 'काका' कविराय, पटक दूल्हा ने खाई
पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई
नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ
मुर्गा बनि बैठे हमहुँ, मिली न कोऊ सीट
मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता
फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता
कहँ 'काका' कविराय, परिस्थिति विकट हमारी
पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे 'टिकस' हमारी
फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय
एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुँ खोय
एक गई कहुँ खोय, तबहिं घुस आयौ टी-टी
मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी
कहँ 'काका', समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया
छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया
जनमासे में मच रह्यौ, ठंडाई को सोर
मिर्च और सक्कर दई, सपरेटा में घोर
सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़
स्वादि-स्वादि में खेंचि गये हम बारह कुल्हड़
कहँ 'काका' कविराय, पेट हो गयौ नगाड़ौ
निकरौसी के समय हमें चढ़ि आयौ जाड़ौ
बेटावारे ने कही, यही हमारी टेक
दरबज्जे पे ले लऊँ नगद पाँच सौ एक
नगद पाँच सौ एक, परेंगी तब ही भाँवर
दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं साँकर
कहँ 'काका' कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे
अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे
बेटीवारे ने बहुत जोरे उनके हाथ
पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात
सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे
पूरी-लड़ुआ छोड़, चना हू मिले न सूखे
कहँ 'काका' कविराय, जान आफत में आई
जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई
समधी-समधी लड़ि परै, तै न भई कछु बात
चलै घरात-बरात में थप्पड़- घूँसा-लात
थप्पड़- घूँसा-लात, तमासौ देखें नारी
देख जंग को दृश्य, कँपकँपी बँधी हमारी
कहँ 'काका' कवि, बाँध बिस्तरा भाजे घर को
पीछे सब चल दिये, संग में लैकें वर को
मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात
बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात
आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी
दरबज्जै पै खड़ीं, बरातिन की घरवारीं
कहँ काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ
बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ
हाथ जोरि माँगी क्षमा, नीची करकें मोंछ
काकी ने पुचकारिकें, आँसू दीन्हें पोंछ
आँसू दीन्हें पोंछ, कसम बाबा की खाई
जब तक जीऊँ, बरात न जाऊँ रामदुहाई
कहँ 'काका' कविराय, अरे वो बेटावारे
अब तो दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे
इस प्रकार हम देखते हैं कि काका हाथरसी समाज के प्रति बहुत ही सजग प्रहरी थे जो किसी भी बुराई को देखते तो अपने व्यंग्य वाणों से जनमानस को सावधानी करने में जरा भी कोताही नहीं करते। वे जनमानस की सामान्य भाषा का प्रयोग करते हुए बड़ी से बड़ी बात को बहुत ही सहजता के साथ कह जाते थे और इसी बात का लोग लोहा मानते थे।
काका हाथरसी के जन्म दिवस पर सप्रेम स्मरण
डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह
सहायक प्रोफेसर (हिंदी)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्याल, जलेसर, एटा, उत्तर प्रदेश
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Email- vickysingh4675@gmail.com