बिखरी बूंदों की यादों से
अब प्रेम सघन होगया।
मिली तरनी सागर में
तो वह धन्य होगया।।
हुलसी कोंपले हजारों
तितलियों का हर्षित मन होगया।
मिलन निहार,हिमपति का
अंग-अंग मगन होगया।
प्रियसी की सुन छन-छन पायलिया
संध्या का रोमांचित तन होगया।।
घूमर-घूमर बदरा हरषे
भ्रमर को बसंत का भ्रम होगया।।
है उदास-धूसरित-दुःखी धरा
ताक द्रवित गगन होगया।
क्रोधित हो चीखी चपला
सचेत-सहमा भुवन होगया।।
व्याकुल कृषक थे प्यासे खेत
किसानी का खूब जतन होगया।
चहूंओर बरसी खूशियां
अन्न-अन्न से भरा आंगन होगया।।
कलियों ने बिखेरी राहों में सुगंध
मंत्रमुग्ध थका पवन होगया।
थी पसारे अलक, अब छककर बरसी बदरिया
कण-कण से प्रस्फुटित सावन होगया।।
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#क्षात्र_लेखनी© @SantoshKshatra