कविता : - मांद से बाहर !
चुप मत रह तू खौफ से
कुछ बोल
बजा वह ढोल
जिसे सुन खौल उठें सब
ये चुप्पी मौत
मरें क्यों हम
मरे सब
हैं जिनके हाँथ रंगे से
छिपे दस्तानों भीतर
जो करते वार
कुटिल सौ बार टीलों के पीछे छिपकर
तू उनको मार सदा कर वार
निकलकर मांद से बाहर
कलम को मांज
हो पैनी धार
सरासर वार सरासर वार
पड़ेंगे खून के छींटे
तू उनको चाट
तू काली बन
जगाकर काल
पहन ले मुंड की माला
ह्रदय में भर ले ज्वाला
मशअलें बुझ न जाएँ
कंस खुद मर न जाएँ
तू पहले चेत
बिछा दे खेत
भले तू एकल एकल
उठा परचम
दिखा दमखम
निरर्थक न हो बेकल
यहाँ कुरुक्षेत्र सजा है
युद्ध भी एक कला है
नहीं उम्मीद न आशाएं
दिखा तलवार का जौहर
बना टोली चला बोली
तू सबको एक तो कर ले
सभी पीडाएं हर ले
तू है दाधीच
भुजाएं भींच
एक हर बल को कर ले
यहाँ शोषित जो जन है
तिरस्कृत हाशिये पर
तू उनका क्यों न वर ले
नहीं अब देव आयेंगे
सनातन सत्य अड़ा है
प्रश्न दर प्रश्न खड़ा है
सगर अतृप्त रहें न
भागीरथ यत्न तो कर ले
हाँ अब कंदील जलेंगे
चोटी पर पाँव चढ़ेंगे
आग को गर्भ से छीनो
तीर बिखरे हैं बीनो
छली ने हमें छला है
युद्ध भी एक कला है
चन्द्रगुप्तों अब जागो
न तुम तो सच से भागो
गुरु की खोज क्या करना
चपल अब खुद है बनना
त्याग बलिदान ध्येय हो
राष्ट्र हित मात्र प्रेय हो
किताबें बहुत हो चुकीं
अमल करने का मौसम
यही और यही वक़्त है
उबलता आज रक्त है
सदा था और आज भी
मान जन बल सशक्त है
न अब कवितायेँ होंगी
शब्द अब युद्ध करेंगे
नहीं तर्कों का भय अब
न टूटेगी ये लय अब
समीक्षा का रथ लेकर
चतुर चापाल चला है
तो हम तैयार खड़े है
आगे बढ़ कर हो हमला
छाती चढ़ कर हो हमला
अपने मस्तक पर हमने
राष्ट्र हित रक्त मला है
युद्ध भी एक कला है
- अभिनव अरुण