जब तक अथ से इति तक
ना हो सब कुछ ठीक ठाक ,
सुख की पीड़ा से अच्छा है
पीड़ा का सुख उठाना.
जब तक सुनी ना जाएँ आवाज़े
सिलने वाले हो हज़ार सूइयों वाले
और होंठों पर पहरे पड़े हों ,
चुप्प रहने से अच्छा है,
शब्दों की अलगनी पर खुद टंग जाना .
जब तक जले न पचास तीलियों वाली माचिस
या ख़ाक न हो जाएँ सडांध लिए मुद्दे
हल वाले हांथों का बुरा हो हाल
मेंड़ पर बैठने से अच्छा है बीज बन जाना .
जब तक मदारी का चलता हो खेल
और एक से एक मंतर हो रहें हो फेल
ज़मीन पर बोझ बन पड़े रहने से अच्छा है
ज़मूरे का हाँथ में छुरी ले लेना .
जब तक माँगी न जाएँ हड्डियां
जब तक कोई मेनका न तोड़े ध्यान
इंतज़ार करने से अच्छा है
दाधीच बन शस्त्रार्थ देहदान कर देना .
- अभिनव अरुण