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ग़ज़ल - अक्षरों में खुदा दिखाई दे

29 मई 2016

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ग़ज़ल –


२१२२ १२१२ २२


अक्षरों में खुदा दिखाई दे

अब मुझे ऐसी रोशनाई दे |

 

हाथ खोलूं तो बस दुआ मांगूँ,

सिर्फ इतनी मुझे कमाई दे |

 

रोशनी हर चिराग में भर दूं ,

कोई ऐसी दियासलाई दे |

 

माँ के हाथों का स्वाद हो जिसमें,

ले ले सबकुछ वही मिठाई दे |

 

धूप तो शहर वाली दे दी है,

गाँव वाली बरफ मलाई दे |

 

बेटियों को दे खूब आज़ादी ,

साथ थोड़ी उन्हें हयाई दे |

 

तल्ख़ लहजा तमाम लोगों को,

मीर दे मीर की रुबाई दे |

 

दर्द होरी सा दे रहा है तो,

साथ धनिया सी एक लुगाई दे |

 

घूस के सौ दहेज़ से बेहतर,

अपने हाथों बनी चटाई दे |


       *सर्वथा मौलिक - अप्रकाशित .

       (c)&(p)  - अभिनव अरुण .

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अभिनव अरुण

अभिनव अरुण

आभार धर्मप्रकाश जी प्रेरक टिप्पणी के लिए !

31 मई 2016

chaurasiya  धर्म प्रकाश चौरसिया

chaurasiya धर्म प्रकाश चौरसिया

बहुत बढ़िया अभिनव जी ! लिक्खो वो गजल के ज़माना बेकरार हो जाए .आपका हर एक हर्फ़ इन्तजार हो जाए ..

29 मई 2016

उमेश कुमार

उमेश कुमार

सुंदर रचना . http://safaltasutra.com/

29 मई 2016

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ग़ज़ल - अक्षरों में खुदा दिखाई दे

29 मई 2016
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ग़ज़ल –२१२२ १२१२ २२अक्षरों में खुदा दिखाई देअब मुझे ऐसी रोशनाई दे | हाथ खोलूं तो बस दुआ मांगूँ,सिर्फ इतनी मुझे कमाई दे | रोशनी हर चिराग में भर दूं ,कोई ऐसी दियासलाई दे | माँ के हाथों का स्वाद हो जिसमें,ले ले सबकुछ वही मिठाई दे | धूप तो शहर वाली दे दी है,गाँव वाली बरफ मलाई दे | बेटियों को दे खूब आज़ादी

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ग़ज़ल - प्रेमिका के हाथ की तुरपाइयाँ

29 मई 2016
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ग़ज़ल :-एक पर्वत और दस दस खाइयां |हैं सतह पर सैकड़ों सच्चाइयां ।हादसे द्योतक हैं बढ़ते ह्रास के ,सभ्यता पर जम गयी हैं काइयाँ  ।भाषणों में नेक नीयत के निबन्ध ,आचरण में आड़ी तिरछी पाइयाँ  ।मंदिरों के द्वार पर भिक्षुक कई ,सच के चेहरे की उजागर झाइयाँ  ।आते ही खिचड़ी के याद आये बहुत ,माँ तेरे हाथों के लड

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कवि , उसकी कविता और तुम !

29 मई 2016
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कवि , उसकी कविता  और तुम ! हाँ उन कविताओं को भी रचा था उसने उसी वेदना के साथजिनपर तुमने तालियाँ नहीं बजायींऔंर  कई कविताओं को रचकर वह देर तक हँसा था खुद परजिन्हें सुनकर तुम झूम उठे थेजानते हो लिखना और सुनाना दो  अलग अलग विधाएं हैंऔर उन सब  पर हावी है रोज़ी रोटी की विधा !कैसे सुनाता वह समूचे जोश और उ

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कविता : - मांद से बाहर !

29 मई 2016
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कविता : -  मांद से बाहर ! चुप  मत रह तू खौफ से  कुछ बोल बजा वह ढोल जिसे सुन खौल उठें सब   ये चुप्पी मौतमरें क्यों हममरे सब हैं जिनके हाँथ रंगे सेछिपे दस्तानों भीतर जो करते वारकुटिल सौ बार टीलों के पीछे छिपकरतू उनको मार सदा कर वार निकलकर मांद से बाहर कलम को मांज हो पैनी धारसरासर वार सरासर वारपड़ेंगे

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लघुकथा - बकाया !

29 मई 2016
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लघुकथा -  बकाया !डॉ धीरज आज सुबह कुछ देर से अस्पताल में पहुंचे थे | सीधे आई सी यू में भर्ती मरीजो की और बढे | सिस्टर अर्चना कुछ बेचैन दिखी उन्हें |"क्या हुआ ? " पूछा उन्होंने | " सर वो चार दिन पहले भर्ती बच्चे की पल्स .. हार्ट रेट ..ब्लड  प्रेशर कुछ भी नहीं .." " हूँ ... " डाक्टर धीरज बेड की ओर बढे

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कविता - अथ से इति तक

29 मई 2016
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जब तक अथ से इति तकना हो सब कुछ ठीक ठाक ,सुख की पीड़ा से अच्छा हैपीड़ा का सुख उठाना.जब तक सुनी ना जाएँ आवाज़ेसिलने वाले हो हज़ार सूइयों वालेऔर होंठों पर पहरे पड़े हों ,चुप्प रहने से अच्छा है,शब्दों की अलगनी पर खुद टंग जाना .जब तक जले न पचास तीलियों वाली माचिसया ख़ाक न हो जाएँ सडांध लिए मुद्देहल वाले हांथो

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