तुकबंदी करने की कोशिश करती हूं पर कवयित्री कहलाती हूं ।
व्यर्थ समय मै नहीं गवाती कुछ लिखकर मन बहलाती हूं
बात सदा अपने मन की , कवितमय तुकबंदी में कहती जाती ।
मातु शारदा वाणी देती,
मैं भावों में बहती जाती ।
सरल शब्द में भाव जगाऊँ, अपने देशवासियों के मन
छोटे- बड़े अशिक्षित - शिक्षित सभी हमारे हैं पाठकगण
ब्रह्मा ने जो दिया बाल्मिकी को क्या कोई नर दे पाया है ।
चुंबक सरल शब्द बाल्मीकि के यह जग सदा खींचा आया है ।
कुटिया महल कहा नहीं पहुंची वाल्मीकि की रामायण
मां शारदा के चरणों की मैं बनना चाहूं एक प्रहरी ।
चाहे हो जाऊं अपमानित
माँ तव द्वार रहूँ बन प्रहरी।
हे मातु शारदे! दीन - हीन हूँ अपने चरणों में रख लेना ।
जगत पुरस्कार न चाहूँ
चेरी समझ शरण दे देना ।
जब तक तन में प्राण रहे मां तेरी सेवा कभी न छोड़ू।
सेवा हित चरणों में ले लो शीश झुकाऊं नित कर जोड़ूं।
तेरे चरणों की ड्योढ़ी पर ही मैं अपना दम तोड़ू
बस एक यही अभिलाषा मेरी
काव्य चुनरियां तन पर ओढ़ू।।।।
- *Dr. Meena Kumari Verma*