आज फिर घेर रहा है ये साया मुझे
कुछ अंदर से कुछ बाहर से,
हर तरह से जहन पर छाने की कोशिश है इसकी
ये कुछ अपना सा कुछ पराया सा,
हर खुशी को छन्नी छन्नी कर मेरे
जज्बातों को कुचलता हुआ ये मेरे
मन की गहराई में समाता जा रहा है
कुछ निडर सा कुछ निर्भय सा
मेरा खुद का अस्तित्व भी
पता नही क्यों दे रहा है इजाज़त इसे
छा जाने की खुद पर
कुछ आधा सा कुछ पूरा सा
छलता है मुझे हर बार मेरा ही व्यवहार
कुछ आधा सा कुछ अधूरा सा और
छोड़ देता है एक शून्य जो है
कुछ बिखरा सा कुछ सिमटा ......
नवीन मौर्य