तलाश-ए-तस्लीम में तेरे तख़्त पर आया हूँ ।
दे सज़ा अब और कि दिल सख्त कर आया हूँ ।
मेरे आंसुओं से बेदाग़, मेरे गुनाह कर दे,
रुला मुझे रज-रज के, गर वक़्त पर आया हूँ ।
देर ज़्यादा कर दी, यह क़बूल कर आया हूँ ।
माफ़ीनामा अपना, नामंज़ूर कर आया हूँ ।
ऐ ख़ुदा अब या तो पास ही बुला ले,
या लिख मुक़द्दर फिर से, फ़रियाद ये लाया हूँ ।
ईमान का, ज़मीर का, क़त्ल कर आया हूँ ।
ज़िंदा जिस्म कितने, रक्त कर आया हूँ ।
इस ज़ाहिल को जहन्नुम भी कैसे नसीब होगी ?
जन्नत की जुस्तज़ू में, जनाज़े रख आया हूँ ।
तेरे नाम पर मुर्दों का, मज़मा लगा आया हूँ ।
और देख मेरी ज़ुर्रत, फिर तेरे दर आया हूँ ।
तौबा ये तेरी, तौहीन कैसी कर दी ?
तेरा हूँ मुलाज़िम, तुझे ये मलाल दे आया हूँ ।
एक शख़्स बेवज़ह क़त्ल-ए-आम पर उतर आता है । शायद कोई वजह भी होती होगी उसकी, पर मुझे ऐसी वजहें बेवजह ही लगती हैं । इस शख़्स को अपनी खता का जब एहसास होता होगा, तो किन अल्फाज़ों में वो खुद से और खुदा से माफ़ी मांगेगा, यही समझने की कोशिश की है यहाँ ।
ऐसे नापाक इरादों के शिकार हुए लोगों की याद में मेरी तरफ से एक छोटी सी श्रद्धांजलि ।