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मैं और मेरा प्रियतम

19 दिसम्बर 2019

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दूर कहीं अम्बर के नीचे,

गहरा बिखरा झुटपुट हो।

वहीं सलोनी नदिया-झरना

झिलमिल जल का सम्पुट हो।




नीरव का स्पंदन हो केवल

छितराता सा बादल हो।

तरुवर की छाया सा फैला

सहज निशा का काजल हो।




दूर दिशा से कर्ण - उतरती

बंसी की मीठी धुन हो।

प्राणों में अविरल अनुनादित

प्रीत भरा मधु गुंजन हो।




उसी अलौकिक निर्जन स्थल पर

इठलाता सा यह मन हो।

दूर जगत की दुविधाओं से

मैं और मेरा प्रियतम हो।




© सुकीर्ति भटनागर, चेतना के स्वर, प. १२

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दूर कहीं अम्बर के नीचे,गहरा बिखरा झुटपुट हो। वहीं सलोनी नदिया-झरना झिलमिल जल का सम्पुट हो। नीरव का स्पंदन हो केवल छितराता सा बादल हो। तरुवर की छाया सा फैला सहज निशा का काजल हो। दूर दिशा से कर्ण - उतरती बंसी की मीठी धुन हो। प्राणों में

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