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सुरक्षा कवच

3 जनवरी 2020

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बचपन में

खेलते, दौड़ते ठोकर लग कर गिर जाने पर

भैया का मुझे हाथ पकड़ कर उठाना,

भीड़ भरे रास्तों पर, फूल-सा सहेज कर

अँगुली पकड़ स्कूल तक ले जाना,

और

आधी छुट्टी में माँ का दिया खाना

मिल-बाँट कर खाना, याद आता है।


बहुत-बहुत याद आता है।


सर्कस और सिनेमा देखते समय

हँसना - खिलखिलाना,

बे-बात रूठना-मनाना,

फिर

देर रात तक राजा-रानी की कहानियाँ

सुनते सुनते सो जाना।


याद आता है,

पिता का दृढ़निश्चयी, कर्मठ और गंभीर व्यक्तित्व

जो कभी डाँटते तो कभी सहलाते

जीवन की उंच-नीच समझाते

और

दुःख-सुख का ध्यान रखते हुए

बिखर जाते कई-कई रंगों में मेरे हर ओर।


तब

भयमुक्त हो, स्वयं को सुरक्षित मान

उस विशाल वट-वृक्ष सम पिता के

अस्तित्व की छाया में

सुखों की छाँव बटोरती

सो जाती उनके शिला-से मज़बूत कन्धों पर

सिर रख।


जाने कितनी-कितनी बार याद आती है

माँ की लोरियाँ सुनाती, आँसू पोंछती,

छाती से लगाती

कोमल-निर्मल छवि

जो

घर-बाहर हर ओर अपने होने का

एहसास दिलाती रहती थी।


आज

उन सबका साथ छूट गया है।


फिर भी कोई है

जो संभाल लेता है ज़रा-सी चोट लग जाने पर।

मेरी चिंता करता

चलता है साथ-साथ भीड़-भरे रास्तों पर।

समझाता है जगती का चलन,

कभी कठोर तो कभी शीतल बन।

उबारता है हर परेशानी, व्यथा

और मानसिक उद्वेग से।

मेरे आँसू पोंछता

माँ सम सीने से लगा कर

रहता है तत्पर

हर पल मुझे मेरी पहचान देने की चेष्टा में।


यह देखता है दूर का चाँद और सितारे भी

तभी तो झिलमिलाते हैं रात भर

निहारते हुए उस चुंबकीय, तिलस्मी चेहरे को

जो विगत के सभी स्वरूप स्वयं में समेट कर,

छा गया है आकाश बन, मेरी संपूर्ण सत्ता पर।


अपने पति के ऐसे स्नेहिल सुरक्षा-कवच को पा

मैं सहज हूँ, शान्त हूँ, प्रसन्न हूँ

क्योंकि अब बीते पलों की याद

मुझे बेचैन नहीं करती।


© सुकीर्ति भटनागर, अनुगूंज, प. ५०-५२

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