दिन सर्दी के भीने भीने
भोर सुहानी रेशम जैसे।
माँ की ममता जेसे मीठी
सर्दी के दिन भी हैं वैसे।
धूप सुहानी सर्दी की यह
थिरक रही आँगन में ऐसे।
फूल-फूल पर मंडराती है
नन्हीं मुन्नी तितली जैसे।
इसकी छुअन बड़ी अलबेली
छू लेती है मन को ऐसे।
गंगा-जल में तिरते दिखते
पनडुब्बी से दीपक जैसे।
हर मुँडेर पर ओढ़ दुशाला
ठिठुरी रहती सर्दी ऐसे।
लज्जा की भीनी चादर ले
सिकुड़ी बैठी दुल्हन जैसे।
सुबह सवेरे धुन्ध घनेरी
आसमान पर छाती ऐसे।
चिलम फूँकता बैठ अकेले
घर का कोई बूढ़ा जैसे।
दोपहरी में धूप खिली सी
आसपास तक फैले ऐसे।
निकल घरों से मुटियारें सब
डाल रहीं हो गिद्धा जैसे।
यह उजास में महकी रहती
अम्बर के तारागण जैसे।
ढली सांझ सन्नाटा भरती
डोली में बेटी हो जैसे।
भली चाँदनी सी यह लगती
बालक के मुख पर स्मित जैसे।
शीतकाल आनंदित करता
बंसी की मोहक धुन जैसे।
© सुकीर्ति भटनागर, अनुगूंज, अयन प्रकाशन, २०१०, प. १३०-१३१