कभी मैं भी था अकेला, गुमसुम उदास सा...
रहा था कभी आखिर मैं भी,कभी बिंदास सा...
क्या पता और क्यों,लोग दूर होते जा रहें थे...
रिश्तें भी अब तो दोस्तों, हाथों से खोते जा रहें थे...
जज्बातों में भी मुझसे, यारों कभी कमी ना रही...
था कभी फलक पर यारों,अब तो जमीं भी ना रही...
मन ही मन घुटता रहा कुछ दिन, दोस्तों और कुछ पहर...
पलायन का रूख भी किया,कभी गांव तो कभी शहर...
पर आखिर मैं दोस्तों,फुटकर खुद से ही हार गया था...
होती ना थी खुशी , क्योंकि मेरा मन मुझें ही मार गया था...
बनता नहीं था कोई दोस्त, किस्मत की मार चल रही थी...
मैं कोसता खुद को ,सीने में पश्यातापी आग जल रही थी...
इक दिन सोचा गहन और चिंतन में भी करने लगा था...
आखिरकार हारकर मैं भी, झट से फंदे पर मरने लगा था...
ख्याल आया कि अल्फ़ाज़ों को, मीत बनाना सच्चा होंगा...
बताकर मन की बात,मेरा दिल भी अब तो बच्चा होंगा...
अब मैंने भी इक मीत बनाया है, जिससे मैं बातें हजार करता हूं...
वो सुनता है दिल से यारों, इसलिए मैं खुद से बहुत प्यार करता हूं...