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नानी का गाँव |

16 जून 2016

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बचपन के दिन वो याद आते हैं , जब नानी के घर हम अपनी छुट्टिया बिताते थे.

कितना सुकून होता था वो सुबह की अंगड़ाई में ,

लाल-लाल सूरज भी हमे नही सताता था, रोज नहाधोकर आता - और हमे प्यार से जगाता था,

उसके साथ आती थी उसकी सैकड़ो रंगीन सहेलिया, जो हर काली चीज को रंगती चली जाती,

वो ठंडी-ठंडी सुबह, वो अधखुली आँखों से आसमान निहारना,

वो चिडियों की चहचहाहट , वो मवेशियों की हलचल,

वहा तो पड़ोसी भी कितने सगे होते थे, रोज-रोज खाने की खुशबू से दावत देते थे,

वो सुबह-सुबह ओस वाली घास पर चलना, फिर गीले पैरो से धुल में भागना, 

इंजन के पानी में घंटो खेलना, गिलहरी, खरगोश यहाँ तक कि मेंढक पर भी प्यार आना ,

तालाब में घुस कर नीले फूल चुराना, 

कई घंटे तो पुल पर ही गुजर जाते थे, जब साप और मछलियों पर हम नजर गड़ाते थे,

वो छोटे-छोटे बच्चे जो मवेशी चराने जाते थे, नहर के पानी में क्या खूब रेस लगते थे,

फिर धुल में सनकर घर वापस आना, नानी कि फटकार, मामा का ताना,

सबसे ज्यादा याद आता है गाव का लाजवाब खाना, 

वो चूल्हे कि लकड़ी ,वो काला धुआ, वो कच्ची फर्श ,वो डरावना कुआ, 

वो पड़ोस के बच्चे जो मेरे आने का जश्न मानते थे,

दूर-दूर से बस मुझे देखने आते थे,पूरी दोपहर हम उनके साथ बिताते थे,

मिलकर पुरे मोहल्ले में हल्ला मचाते थे,

यहाँ-वहा वहा-यहाँ घूम-घूम कर जाने कितने रस्ते खोजे थे हमने,

दिन कि तूफानी हवाओ में भूतो की कहानिया, कड़कती दोपहर में मंदिर के आँगन में खेलना,

वो तितली पकड़ना, वो पत्तो के खिलौने, वो कीचड़ से सनना ,वो बग्घी से गिरना,

सबमे कितना मजा आता था, न खुद की फ़िक्र न किसी और का खौफ सताता था,

वो चोरी से बैग में फल चुराने जाना,सबका भाग जाना ,मेरा पकड़ा जाना,

गुलाब-जामुन और जामुन में बस इतना फर्क हुआ करता था,

जामुन पेड़ से, गुलाब-जामुन मम्मी से मिला करता था,

बड़े बड़े जामुन फ्राक में भर कर घर लाना,

फ्राक कैसे ख़राब हुई, बताना कोई बहाना,

सबसे मजेदार हुआ करता था खेल छुपा-छुपाई का,

जिसमे हम गाव की एक-एक छत फंदा करते थे,

किसी के घर से घुसते और किसी और की छत से निकलते थे,

10 से 4 बस यही काम था हमारा,

यहाँ तक कि मवेशी भी हमारे सताए थे जिनकी पीठ पर बैठ कर जाने कितने बेढंगे गीत गाये थे,

फिर आ जाती थी बारिश की बूंदे,

मौसम बनते ही हमारा छत पर भाग जाता,

मोरो की आवाज ,चिड़ियों की भगदड़ से संगीत बनाना,

वो लिप्तिस का पेड़ भी क्या खूब साथ निभाता था, हवा में झूम कर गिटार बजाता था,

साथ में जब मिट्टी अपनी सौंधी महक बिखेरती थी, कुदरत का प्यार देखकर गजब की खुशी होतीथी,

बारिश के बाद हम तालाब पर जाते थे जहा सारे पीले मेंढक बाहर निकल आते थे, 

उनकी टर्र-टर्र कुछ अजीब अहसास कराती थी, कभी मधुर तो कभी कर्कश छाप छोड़ जाती थी,

हर बार मेरा पायल का इंजन के पानी में खो देना,

फिर मामी से मुझे नयी पायल मिलना, 

वो नानी का प्यार से मेरा हाथ चूमना और मुझे सगुन देना,

वो सबकी प्यारी मुस्कान जो मुझे उनके लाडले होने का अहसास कराती थी,

वो बचपन के दिन याद आते है ,जब नानी के घर हम अपनी छुट्टिया बिताते थे.

डॉ उमेश पुरी 'ज्ञानेश्‍वर'

डॉ उमेश पुरी 'ज्ञानेश्‍वर'

मुझे अच्छी तरह याद है बचपन में गर्मी की छुट्टियां नानी के यहां बीतती थीं।

16 जून 2016

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