धरती का चित्कार
सुनो गौऱ से धरतीवासियों,धरती के चीत्कार को,आकुल,विकल,कही शिथिल पड़ी है,खोती अपने आसार को।मांग रही है फिर वेदी पर,उन बलिदानी सपुतों को,किया आजाद जिसने मां को,उनके कपुतो को।वही कपुत आज मां से दगा करते हैं,भ्रमित कर युवाओं को,आतंकवाद के बीज बोते है।कह दो उन से सताए नाकिसी गरीब लाचारो को,करे ना विवश,क्