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इंसानियत...

29 जनवरी 2022

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हमारा देश भारत एक धर्म निरपेक्ष देश हैं..। यहाँ सभी धर्म के लोग रहते हैं..। हर शहर में.. हर गली में आपको हर तरह के लोग मिल जाएंगे..। हर धर्म के लोग अपने अपने धर्म और मजहब का पालन करते हुए बड़े ही प्यार और भाईचारे के साथ यहाँ रहते हैं..। 
हिन्दू, मुस्लिम, सिख , ईसाई..... हम सब हैं भाई भाई..। बचपन ये पंक्ति सुनते आ रहें हैं और यह सत्य भी हैं...। किसान हो , डाक्टर हो, इंजीनियर हो या कोई भी काम .... आपको हर कार्य में हर धर्म का व्यक्ति मिल जाएगा....। 
धर्म और मजहब की बात निकलीं हैं तो एक वाक्या आप सबके समक्ष रखतें हैं....। 
बात आज से बहुत सालों पहले की हैं...। हम अपनी चचेरी बहन के साथ उनकी होने वाली शादी की तैयारी के लिए बाजार गए थे खरीदारी करने के लिए....। कुछ जरूरी सामान लेने के बाद..... हम दोनों जूते खरीदने के लिए एक जूते की दुकान पर गए...। लेकिन वहाँ काम करने वाले लोग उस वक्त खाना खा रहे थे...। हमें कुछ देर बैठने को कहा...। हम दोनों वहाँ रखी बैंच पर बैठ गई और लिये हुए सामान का हिसाब किताब करने लगीं...। गर्मी का मौसम था तो मैंने मेरी बहन को पास ही मौजूद गन्ने का रस वाली दुकान से रस पीने की जिझासा जताई....। वो भी मान गई और हम दुकान पर बोलकर रस पीने चले गए...। रस पीकर हम लोग फिर से उसी दुकान पर आए और जूते पंसद करने लगे...। तकरीबन दस पन्द्रह मिनट बाद दो जोड़ी जूते पसंद किए....। उनकों पैक करवा कर हम जैसे ही पैसे देने के लिए पर्स निकालना चाहा तो हमें पता चला की पर्स नहीं हैं...। 
हमने पूरा सामान उथल पुथल कर दिया.... चार पांच बार खोजा पर पर्स नहीं मिला..। हमने गन्ने के रस वाले के पास भी जाकर देखा पर वहाँ भी पर्स नहीं मिला..। मेरी बहन को याद आया की रस पीते वक्त कुछ देर के लिए उसने बैग्स और पर्स नीचे रखें थें..... शायद उसी वक्त किसी ने पर्स चुरा लिया था..। 
हमने कोई रास्ता ना मिलने पर जूते कैंसिल कर दिए.... और दूकान से बाहर आ गए...। बाहर आकर मेरी बहन मुझ पर दोष मड़ने लगीं की मेरी वजह से यह सब हुआ हैं....। ना मैं रस पीने का बोलतीं ना ये सब कुछ होता...। मैं रुहांसी सी होकर चुपचाप उसकी डांट सुनने लगीं...। लेकिन मसला ये था की अब हम घर कैसे जाएंगे...। बाजार से घर बहुत दूरी पर था..। हम बाजार से बाहर निकल कर बस स्टैंड पर बैठ गए और एक दूसरे की शक्ल देखने लगे की अब क्या करें...। उस वक़्त मोबाइल फोन का अभी इतना इस्तेमाल नहीं होता था और हमारे घर तो लैंडलाइन फोन भी नहीं था...।पड़ोस के एक अंकल के घर लैंडलाइन फोन था पर दिक्कत ये थी उनकों फोन करने के लिए भी एक रुपये का सिक्का तो चाहिए..... हमारे पास वो भी नहीं था...। हमें दस पन्द्रह मिनट हुवे होंगे की आखिर करें तो क्या करे की हमने देखा..... एक शख्स हमारे पास आया और हमें एक बैग देते हुए बोला:-बेटा ये बैग्स रखो और ये कुछ रुपये भी रखो और घबराओ मत....आराम से घर जाओ....। 
हम दोनों उठ खड़े हुवे और कहा:- लेकिन आप कौन हो...। और इन बैग्स में क्या हैं..। 
वो शख्स बोला:- आप जिस जूते की दुकान पर आई थी मैं भी वहीं काम करता हूँ और ये बैग हमारे सेठ ने भिजवाया हैं..... इसमें वही जूते हैं जो आपने पंसद किए थे...। हमारे सेठ ने आपकी बातें सुनी और देखा की आप बहुत परेशान हैं.... इसलिए उन्होंने यह रुपये भी भिजवाएं हैं...। अभी आप बिना चिंता के आराम से घर जाइए...। 
मैं बोलीं:- लेकिन हम ये सब कैसे ले सकते हैं.... और आप बिना जाने हमें ऐसे क्यूँ दे रहे हैं....। 
वो शख्स बोला:- इस वक्त आपके पास और कोई रास्ता नहीं हैं.... और इस भीड़ वाले बाजार में कहा उस चोर को ढुंढेगी...। 
मेरी बहन ने मौकै की नजाकत को समझते हुए उस शख्स की बात मान ली और हम सकुशल घर आ गए...। 
अगले दिन हम फिर उसी बाजार में गए और उसी जूते की दुकान पर गए... उनके पैसे लौटाने...। 
हम भीतर गए और दुकान के मालिक को बुलाकर उनके पैसे देने लगे...। लेकिन हम दोनों बहनें उनकी बात सुनकर सुन्न पर गर्ई। 
उस शख्स ने कहा की उन्होंने ऐसे किसी शख्स को भेजा ही नहीं... और ना ही उस शक्लो सुरत का कोई शख्स उनकी दुकान पर काम करता हैं...। हमें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था की ये सब क्या हो रहा हैं...। तभी उसी दुकान पर काम करने वाला एक शख्स बोला की मैडम आप जिस तरह के शख्स की बात कर रहीं हैं ऐसा एक शख्स आपके साथ ही दुकान पर आया था जूते लेने.... लेकिन वो तो थोड़ी देर में चला गया था...। हो सकता हैं उसने आपकी बातें सुनली हो और वो ही आपको पैसे देकर गया हो...। तभी एक और शख्स बोला :- अरे हां... आप के जाने के बाद वो शख्स ही तो आया था.... आपके पंसद किए हुए जूते लेने... मैनें खुद पैक करके दिए थे...। मुझे लगा वो आपका कोई दोस्त होगा...। 
अब हम सभी को सारा मामला समझ में आ गया था...। उस अंजान शख्स ने हमारी परेशानी समझी और अंजान बनकर ही हमारी मदद कर गया..। उस दिन के बाद हम बहुत बार उस बाजार में गए....। लेकिन वो शख्स हमें दोबारा कभी नहीं दिखा...। वो चाहता तो सीधे हमारी मदद कर सकता था... लेकिन शायद उसे पता था की अगर वो ऐसा करता तो हम उसकी मदद शायद नहीं लेते... क्योंकि वो एक मुस्लिम शख्स था... उसके पहनावे से पता चल रहा था... इसलिए उसने दुकान पर काम करने वाले का झूठ हमसे कहा....। लेकिन आज भी उस वाक्ये को याद करते हैं तो सोचते हैं...। ये हिन्दू मुस्लिम का भेद... दोनों में इतनी नफरत आखिर क्यूँ...। सबसे पहले हम इंसान हैं... और हमारा पहला धर्म इंसानियत का हैं...। 

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इंसानियत...
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निजी जीवन से जुड़ा एक वाक्या.... जो बहुत कुछ सीखाता हैं..और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता हैं...।

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