स्वाधीनता में महान सुख है और पराधीनता में किंचित–मात्र भी सुख नहीं I पराधीनता दुखों की खान है I स्वाभिमानी व्यक्ति एक दिन भी परतंत्र रहना पसंद नहीं करता I उसका स्वाभिमान परतंत्रता के बंधन को तोड़ देना चाहता है I पराधीन व्यक्ति को चाहे कितना ही सुख, भोग और ऐश्वर्य प्राप्त हो, वह उसके लिए विष-तुल्य ही है I पराधीन व्यक्ति की बुद्धि कुंठित हो जाती है, उसकी योग्यता का विकास अवरुद्ध हो जाता है, स्वतंत्र चिंतन का विकास रुक जाता है और उसको पग-पग पर अपमानित व् प्रताड़ित होना पड़ता है I अपने ही देश में वह पराया हो जाता है I परतंत्रता के बंधनों में जकड़ा उसका जीवन उसको भार-तुल्य प्रतीत होने लगता है I रूखी-सूखी खाकर, टूटी खाट पर सोने वाला स्वाधीन व्यक्ति भी, पराधीन व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक स्वस्थ, प्रसन्न व् निर्भीक होता है I किसी कवि ने सत्य ही कहा है—
“बस एक दिन की दासता, शत कोटि नरक समान हैI
क्षण मात्र की स्वाधीनता, शत स्वर्ग की मेहमान है II”
हम देखते हैं कि पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी स्वच्छंद रहना चाहते हैं I सोने के पिंजरे में बंद पंछी, सभी प्रकार के सुखों के उपलब्ध होने पर भी पिंजरे की शलाकाओं पर चोंच से प्रहार करता है और मुक्त होने के लिए छटपटाता है I मुक्त गगन में उन्मुक्त उड़ान भरने में जो आनंद है, वह उस पिंजरे में कहाँ? कल-कल नाद करने वाली नदियाँ भी पर्वतों की छाती को चीर कर आगे बढ़ जाती हैं I शेर-चीते जैसे हिंसक पशु भी कठघरा तोड़कर बाहर निकलने को बेचैन रहते हैं I जब पशु-पक्षी, पेड़-पौधों आदि को भी स्वतंत्रता से इतना उन्मुक्त प्रेम है तो विवेकशील व्यक्ति परतंत्र रहना कैसे पसंद करेगा? एक अँगरेज़ लेखक का यह कथन कितना सत्य है—‘It is better to reign in hell than to be a slave in heaven.’ अर्थात स्वर्ग में दास बनकर रहने से नरक में राज्य करना कहीं अधिक अच्छा है I महर्षि व्यास ने भी प्रकारान्तर से यही बात कही है—‘पारतन्त्रं महादु:खं स्वातन्त्र्यं परमं सुखम I’
परतंत्रता वास्तव में मानव के लिए कलंक है I उसे जीवन के हर क्षेत्र में पराश्रित रहना पड़ता है I उसकी प्रतिभा, कला-कौशल और योग्यता दूसरों के लिए होती है I उसका लाभ वह स्वयं नहीं ले पाता I वह पराधीनता के बन्धन में जकड़ा हुआ होने से आत्महीनता और तुच्छता का अनुभव करता है I वह अपने जीवन को उपेक्षित और पीड़ित समझता है और ऐसे परतंत्र जीवन को स्वप्न में भी नहीं जीना चाहता I
पराधीनता अभिशाप है I पराधीनता मानव, समाज अथवा राष्ट्र के लिए कभी हितकर नहीं हो सकती I पराधीनता से उन्नति तथा विकास के सभी मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं I पराधीन व्यक्ति या राष्ट्र को नारकीय यातनाएं सहन करनी पड़ती हैं I पराधीनता में विचारों की स्वतंत्रता और स्वतंत्र भावों के प्रकाशन की अभिव्यक्ति सब कुछ नष्ट हो जाता है I पराधीन राष्ट्र सभी सुख-साधनों से हीन होकर दूसरे शासकों की कठपुतली बन जाते हैं I
पराधीनता चाहे व्यक्ति की हो या राष्ट्र की—दोनों ही गर्हित हैं I जिस प्रकार व्यक्तिगत पराधीनता से व्यक्ति का विकास रुक जाता है, उसी प्रकार राष्ट्र की पराधीनता से राष्ट्र पंगु बन जाता है I उसकी चेतना-शक्ति शून्य और निष्कर्म हो जाती है I
राजनीतिक पराधीनता सबसे भयावह है I इसके अंतर्गत एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र का गुलाम बनकर रहना पड़ता है I कोई देश गुलाम नहीं रहना चाहता, वह बड़ी से बड़ी कुर्बानी देकर भी स्वतंत्र होना चाहता है I आज युग करवट ले रहा है I इसीलिए एक राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र को परतंत्र नहीं बना सकता I फिर भी, शक्तिशाली राष्ट्र किसी अन्य राष्ट्र को आर्थिक सहायता के नाम पर उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं I यह पराधीनता भविष्य में बहुत कष्टकर होती है I पराधीनता, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक या प्राकृतिक ही क्यों न हो, किसी को सुख से नहीं रहने देती है I
स्वाधीनता की शीतल छाया में संस्कृति, सभ्यता और समृद्धि बढ़ती है I जीवन में उत्साह, स्फूर्ति और उल्लास का संचार होता है I स्वतंत्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है I इस अधिकार की प्राप्ति हेतु प्रत्येक व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र को सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए I हमारा सौभाग्य है कि हम भारत की मुक्त धरा पर सांस ले रहे हैं, आज़ादी के गीत गा रहे हैं I हमारा देश चिर-स्वतंत्र बना रहे, इसके लिए हमें आपसी द्वेषभाव व् वर्ग-विद्वेष को भूलकर राष्ट्रीय चेतना जाग्रत कर देश के गौरव को अटल एवं अक्षुण्ण रखने के लिए संकल्प लेना चाहिए I