खोलकर तुम गेसुओं को जब भी निकले
जाफ़रानी सी महक उठ्ठी हवाएं ।
टूट बैठे डालियों से फूल सारे
भूल बैठे रास्ते अपनी दिशाएं ।।
बेल पावस में सुभाषित हो रही है
चांदनी भी आ गई पथ में बिखरने ।
ले रही अंगड़ाइयां वो मेघ बूंदें
रूप राशि की स्वंय ऋतु में निखरने ।
प्रेम का प्रेमी मधुर रस खोलते हैं
पीत सरसों पे जो भौरे गुनगुनाएं।।
उड़ चला सुधियों में अपनी मन पखेरू
ढूंढने अनुराग के गीतों की नगरी ।
लिख रहा अनुबंध की जल पर कहानी
फुनगी फुनगी हो गई रंगीन सगरी ।
नेह रस घुलने लगा कानों में जैसे
आ रही हों दूर से फगवी सदाएं।।
भावना ने प्रेम रूपी बीज बोकर
कर दिया फिर से हरा बंजर जमीं को ।
खिल गया है पुष्प वो जो बिन तुम्हारे
भूल बैठा था कभी अपनी हंसी को ।
भर गई झंकार रग रग में ह्रदय के
खुल गई है बंद प्रश्नों की ऋचाऐं।।