जानते हैं तुम हमे मानते हो अपना, फिर भी कल रात देखा मैंने एक सपना, हम खड़े थे बीच मजधार में, और तुम खड़े थे किनारे की धार में, डूब रहे थे हम अपना सब कुछ गवाकर, और तुमने कुछ भी न किया मेरे पास आकर, बिखर रहा था मेरा सब कुछ ओस की बूँद की तरह, और तुम खोज रहे थे मेरे डूबने की वजह, फिर न जाने खान कहाँ से आ गई एक पतवार, दिया मुझे सहारा और पोह्चाया उस पार, आकर बाहर तुमसे मैंने पुछा सवाल, क्या मेरे चीखने की तुमने नहीं सुनी आवाज, तुमने धीरे से अपने लब खोले और मुस्कुराकर बोले, यार मैंने ही भेजी थी वो नौका, और डूबने तुम्हें मैंने ही रोका, ऐसे भी दोस्त होते हैं इस ज़माने में, अगर इत्तफ़ाक़ हो जाये कभी, तो पीछे नही हट्ते अपनी शान दिखाने में,