चला है जो हयात-ए-सफ़र इस तरह,
आता नही कुछ नज़र इस तरह,
रफ़्तार की समझ तो नहीं ! ऐ अलीम,
हो सा गया हूँ शज़र इस तरह,
बना हूँ जो हमसफ़र खुद का इस तरह,
छोड़ता नही अब कोई कसर इस तरह,
हर रोज़ मुलाकात करता हूँ तूफानों से,
अब कर लिया इनमे बसर इस तरह,
क्या मुकम्मल होगा हशर इस तरह,
बना रहेगा क्या जूनून-ओ-असर इस तरह,
अब तो हो रहमत ऐ मौला,
हो रही हैं कोशिशें बेअसर इस तरह,
लगता ये सब है मुक़र्रर इस तरह,
के देता नहिं साथ मुक़द्दर इस तरह,
अब मिज़ाज़ ही बना लिया है टकराने का,
बनकर ही रहूँगा इक दिन सिकंदर इस तरह,
कर रहा हूँ समर खुद से इस तरह,
घायल होता हूँ अक्सर इस तरह,
हुनर का अफसर हूँ ये जानता हूँ मै,
छिपा है जो मुझ में संमंदर इस तरह,
✍✍ ✍ ✍ VINEET KUMAR SARATHE POETRY
7389710761