मुख्यतः हम जनसाधारण शिक्षा व साक्षरता में अंतर करना नहीं जानते. किसीके शिक्षित होने या न होने का मापदंड उसके उपलब्ध किये हुए डिग्री से समझते हैं. जिसने जितनी ज़्यादा उच्च शिक्षा प्राप्त की हो वह उतना ही दूरदर्शी और सुलझे हुए विचारों का होगा, हम ऐसा समझते हैं. और, ऐसा होना भी चाहिए! परन्तु क्या ऐसा है? अगर हम अपनी चर्चा भारतीयों तक ही सीमित रखें और अपने चारों तरफ देखें, तो पाएंगे की ज़्यादातर परिवार अपने बच्चों की 'शिक्षा' को लेकर अत्यंत महत्वकांक्षी होते हैं.वह 'शिक्षा' ,जो परीक्षाओं में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होना और अच्छे से अच्छे कंपनी में बड़े वेतन पर काम करने तक ही सीमित रह जाता है. परन्तु ऐसे व्यक्ति को हम 'शिक्षित' नहीं केवल 'साक्षर' कहेंगे.
'साक्षरता' - जिसकी सीमा केवल किताबी ज्ञान और सूचनाओं का जमावड़ा है. पर 'शिक्षित ' , इस ज्ञान के प्राप्त होने के बाद होने वाले बौद्धिक विकास और मनोविकास को कहना उचित होगा जो मनुष्य के दृष्टिकोण को सकारात्मक भाव से बदल सके. अपने आप और समाज में व्याप्त कुंठाओं और उस संकीर्ण विचारधारा से मुक्त हो सके जो किसी भी अन्य जीव के अहित में काम करते हों.
अशिक्षित व्यक्ति को जानवर के समान माना जा सकता है, जो केवल अपने बारे में सोच सकता है. जिसे स्वयं का पोषण , स्वयं की रक्षा और स्वयं के निर्वाह की ही चिंता रहे. मनुष्य ने जंगल से सभ्यता की ओर , शिक्षा के बल पर ही प्रवेश किया था. समाज में हर व्यक्ति चाहे जिस किसी भी आर्थिक ओहदे का हो, अपने से निचले वर्ग में दान-पुण्य कर अपने मनुष्य धर्म का निर्वाह करता था. हम जिस काल में आज रहते हैं, ' दान' केवल ' अर्थ ' से ही नहीं, अपितु अपने श्रम अथवा प्रतिदिन के अपने समाज के प्रति उचित आचरण और उन्मुक्त विचारों से भी कर सकते हैं.
यदि हम यह सोच अपने आप और अपनी आगामी पीढ़ियों में विकसित कर पाएं, तो हम सही मायनों में 'शिक्षित' कहलाने के योग्य बनेंगे.