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स्नेह वृक्ष

3 नवम्बर 2017

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बरस बीते, बीते अनगिनत पल कितने ही तेरे संग,

सदियाँ बीती, मौसम बदले........

अनदेखा सा कुछ अनवरत पाया है तुमसे,

हाँ ! ... हाँ! वो स्नेह ही है.....

बदला नही वो आज भी, बस बदला है स्नेह का रंग।


कभी चेहरे की शिकन से झलकता,

कभी नैनों की कोर से छलकता,

कभी मन की तड़प और संताप बन उभरता,

सुख में हँसी, दुख में विलाप करता,

मौसम बदले! पौध स्नेह का सदैव ही दिखा इक रंग ।


छूकर या फिर दूर ही रहकर!

अन्तर्मन के घेरे में मूक सायों सी सिमटकर,

हवाओं में इक एहसास सा बिखरकर,

साँसों मे खुश्बू सी बन कर,

स्नेह का आँचल लिए, सदा ही दिखती हो तुम संग।


अमूल्य, अनमोल है यह स्नेह तेरा,

दूँ तुझको मैं बदले में क्या?

तेरा है सबकुछ, मेरा कुछ भी तो अब रहा ना मेरा,

इक मैं हूँ, समर्पित कण-कण तुझको,

भाव समर्पण के ना बदलेंगे, बदलते मौसम के संग।


है सौदा यह, नेह के लेन-देन का,

नेह निभाने में हो तुम माहिर,

स्नेह पात लुटा, वृक्ष विशाल बने तुम नेह का,

छाया देती है जो हरपल,

अक्षुण्ह स्नेह ये तेरा, क्या बदलेगा मौसम के संग?

पुरूषोत्तम कुमार सिन्हा की अन्य किताबें

रेणु

रेणु

मौसम बदले दुनिया बदले - नहीं बदलते स्नेह के रंग कभी ; जो स्नेह बीज बन जाए वृक्ष नहीं छूटता उसका संग कभी !! दिव्य स्नेह को समर्पित ये रचना आलौकिक भावों से तराशी गयी है | बहुत उम्दा लेखन | सादर -- सस्नेह -------

4 नवम्बर 2017

आलोक सिन्हा

आलोक सिन्हा

बहुत सुंदर रचना है .

4 नवम्बर 2017

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रचनाएँ
Purushottam
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मेरी कविताओं की दुनियाँ में आपका स्वागत है। यकीन है मुझको ककि आप खुद को यहाँ ढूंढ पाएंगे। एक तलाश, जो कहीं न कहीं आपके अन्दर कस्तूरी की तरह छुपी है, उससे आप रूबररू हो पाएंगे। आइए संग चलते हैं, मेरी कविताओं पर अपनी तलाश के सफर में।
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स्नेह वृक्ष

3 नवम्बर 2017
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बरस बीते, बीते अनगिनत पल कितने ही तेरे संग, सदियाँ बीती, मौसम बदले........ अनदेखा सा कुछ अनवरत पाया है तुमसे, हाँ ! ... हाँ! वो स्नेह ही है..... बदला नही वो आज भी, बस बदला है स्नेह का रंग। कभी चेहरे की शिकन से झलकता, कभी नैनों की कोर से छलकता, कभी मन की तड़प और सं

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टूटी है वो निस्तब्धता,निर्लिप्त जहाँ, सदियों ये मन था!खामोश शिलाओं की, टूट चुकी है निन्द्रा,डोल उठे हैं वो, कुछ बोल चुके हैं वो,जिस पर्वत पर थे, उसको तोल चुके हैं वो,निःस्तब्ध पड़े थे, वहाँ वो वर्षों खड़े थे, शिखर पर उनकी, मोतियों से जड़े थे, उनमें ही निर्लिप्त, स्वयं में संतृप्त, प्यास जगी थी, या

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