अनम इब्राहिम 7771851163
रौशन हुआ सवेरा खुल गई पलकें। ये वक़्त एक
अँधेरे और उजाले का दरमियानी हिस्सा है। हवा भी ताज़ा तरीन है मौसम के मिज़ाज़ भी कुछ नये है हल्लागुल्ला भी खामोशियों में गूम है सांसों में अब अजब सी गर्मी है और रास्ते ख़ाली पसरे पड़े हुए है।शहर खुद मुझ को अपने अंदर शिरक़त करने की दावत दे रहा है क्योंकि अल्लाह ने एक और दिन
ज़िन्दगी में मेरी जीना लिख दिया है। सोचता हूं क्योंना सारी दुनिया की जंग को आज ही लड़ लूं। बस इसी उम्मीद पर रुक जाता हूं खुदा कल भी सुबह देगा।ऐसा भी नहीं है की टालमटोल कर आज कल ही करता हूं। अनम का ज़िन्दगी जीने का अंदाज़ कुछ जुदा है ज़िन्दगी की ख्वाइसों की किताब में कुछ पन्ने मोड़कर जरूर रखे है बस उन्हें दौहरने का अभी इरादा नही है क्योंकि मै ख्वाइशों को ख़याल बनाना पसन्द नही करता। दरअसल में जज़बात का ज़िहादी हूं आंख के पानी में और समन्दर के पानी में सिर्फ़ व सिर्फ़ जज़्बात का फर्क है। जज़्बाती ही आंख के आसुंओं को देख दिल में उतर ज़ख्म पर मरहम लगा दर्द को भाप आते है और इन्साफ़ के वक़्त सच मज़लूम कमज़ोर की तरफ़ खड़े हो कर उस की वक़ालत करते है ये (फ़ितरत ए जज़्बात है ) मैने जब भी ज़िन्दगी में जंग लड़ी है जंग के मैदान में मैने कभी ये नहीं देखा की सामने कौन है मेरी नज़र लश्कर के सबसे पीछे के सिपाही पर होती है की मुझे शिख़स्त दे दे कर वहां तक जाना है।
परवाह नही मेरा सर क़लम कर दो
परवाह नही मुझे सूली पर चढ़ा दो में निष्पक्ष धार धार शब्दों से नाइंसाफ़ी पर हमला करते रहूँगा बुराई कितनी भी लाबो लश्कर से मैदान में हो गर में जुज गया तो तमाशा खड़ा कर दूंगा। मेरे होसलो को तोड़ना इतना आसां नही अगर मुझ पर क़ाबू पाना है तो मेरी सांसें तोड़नी पड़ेगी । एक मौत ही है जो मुझ पर क़ाबू पा सकती है। में जब हक़ की राह पर चलने के लिए खड़ा होता हूं तो जान हथेली पर नही रखता बल्की हथेली में जान दबा के उठता हूं । ये शुफ़ियाना ज़िन्दगी है नासमझ दुश्मन क्या जाने यहां मुझ पर क़ुदरत की लाखों हिफ़ाजत पेहरा देती है रहमत ए ईलाही के सायें में महफूज़ हूं और उसी के पास है मेरी इज्जत व ज़िल्लत इंशा अल्लाह जब तक पत्रकारिकता करूंगा निष्पक्ष करूंगा चाहे वो ज़माने का ज़ालिम बादशाह हो या कोई भी रुस्तम फ़र्क नही पड़ता मेरा काम है सच की पैरवी करना और सच बात पर रौशनी डालना। इस के लिए चाहे मेरे अपने क्योंना रुठने लगे अरे मियां दिल में क्यों मेरे लिए गुबार रख कर चिंता को चाट रहे हो।
यहां राहे मोहब्बत तो है और रास्ता भी है नफ़रत का बस हमे ये तय करना है की हम किधर जाएं ।हम ने तो सीखा है मोहब्बत को बाटते रहना और गुमराही पर अपनों को डांटते रहना। सुरूर कितना मेरी अदाओ में आ गया ए मौला जब से में तेरे रहम की पनाहों में आ गया। दोस्तों ताज़ा सुनहरी प्यारी प्यारी नाज़ुक नाज़ुक नमी में लतपत फिसलती सुबाह का सलाम का क़बूल हो🌹🌹🌹