सूर्योपनिषद अथर्ववेदीय परम्परा से संबंध रखता है। इस उपनिषद में आठ श्लोकों में ब्रह्मा और सूर्य की अभिन्नता वर्णित है और बाद में सूर्य व आत्मा की अभिन्नता प्रतिपादित की गई है। इस उपनिषद के पाठ के लिए हस्त नक्षत्र स्थित सूर्य का समय अर्थात् आश्विन मास सर्वोत्तम माना गया है। इसके पाठ से व्यक्ति मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है।
अथ सूर्याथर्वागिंरसं व्याख्यास्यामः। ब्रह्मा ऋषिः। गायत्री छन्दः। आदित्यो देवता। हंसः सोऽहमग्निनारायणयुक्तं बीजम्। हृल्लेखा शक्तिः। वियदादिर्ससंयुक्तं कीलकं। चतुर्विधपुरुषार्थसद्धियर्थे विनियोगः। षट्स्वरारूढेन बीजेन षडअंग रक्ताम्बुजसंस्थितम्।सप्ताश्वरथिनं हिरण्यवर्णं चतुर्भुजं पद्मद्वयाभयवरदहस्तं कलचक्रप्रणेतारं श्रीसूर्यनारायणं य एवं वेद स वै ब्राह्मण।। 1।।
अब सूर्यदेव से संबंधित अथर्ववेद के मन्त्रों की व्याख्या करेंगे। इस मन्त्रों के ऋषि ब्रह्मा, छन्द गायत्री और आदित्य देवता हैं। ‘हंस’ ‘सोऽहम्’ अग्निनारायण से युक्त बीज तथा हृल्लेखा(उत्सुकता)शक्ति है। वियत्(आकाश )सृष्टि से संबंधित कीलक हैं। इस मन्त्र का विनियोग चारों पुरुषार्थों की सिद्धि हेतु किया जाता है। षट् स्वरों पर बीज के साथ प्रतिष्ठित, षडअंगयुक्त, लालकमल पर अवस्थित, सात अश्व वाले रथ पर आरूढ़ , हिरण्यवर्ण, चतुर्भुजधारी, चारों हाथों में से दो में कमल तथा दोमें वरमुद्रा और अभयमुद्रा धारण करने वाले, कालचक्र के प्रेरक भगवान् सूर्यदेव को जो इस रूप में जानता है, वही ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मवेत्ता है।