आदित्याद्वायुर्जायते। आदित्याद्भूमिर्जायते। आदित्यादापो जायन्ते।आदित्याज्ज्योतिर्जायते।आदित्याद्व्योम दिशो जायन्ते।आदित्याद्देवा जायन्ते।
आदित्याद्वेदाजायन्ते। आदित्यो वा एष एतन्मंडलं तपति । असावादित्यो ब्रह्म।आदित्योऽन्तःकरणमनोबुद्धिचित्ताहंकाराः।आदित्यो वै व्यानः समा-
नोदानोऽपानः प्राणः। आदित्यो वै श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणाः।आदित्यो वै वाक्पाणिपादपायूपस्थाः।आदित्यो वै शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः। आदित्यो वै
वचनादानागमनवि-सर्गानन्दाः। आनन्दमयो ज्ञानमयो विज्ञानमय आदित्यः।। 5।।
आदित्य से ही वायु, भूमि, जल और ज्योति उत्पन्न होती है। उन्हीं से आकाश और दिशाओं की उत्पत्ति होती है। उन्हीं से देवताओं और वेदों का प्राकट्य होता है। आदित्य देव ही इस ब्रह्माण्ड को तपाते हैं। यह आदित्य ही ब्रह्म है। यही अन्तःकरण(चतुष्टय), मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार रूप है। यह आदित्यदेव ही प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान-इन पांच प्राणो के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यही श्रवेणेन्द्रिय, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण नामक इन पांच इन्द्रिय रूप में क्रियाशील हैं। वाक्, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ नामक इन पांच कर्मेन्द्रियों के रूप में भी यही हैं। आदित्य ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध नामक पांच ज्ञा- नेन्द्रियों को तन्मात्रा तथा वचन, आदान, गमन, मलविसर्जन व आनन्द नामक पांच कर्मेन्द्रियों की तन्मात्रारूप हैं। यही आनन्दमय, ज्ञानमय तथा विज्ञान- मय हैं।
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