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सूर्योपनिषद् - 4

29 जून 2016

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आदित्याद्वायुर्जायते। आदित्याद्भूमिर्जायते। आदित्यादापो जायन्ते।आदित्याज्ज्योतिर्जायते।आदित्याद्व्योम दिशो जायन्ते।आदित्याद्देवा जायन्ते।
आदित्याद्वेदाजायन्ते। आदित्यो वा एष एतन्मंडलं तपति । असावादित्यो ब्रह्म।आदित्योऽन्तःकरणमनोबुद्धिचित्ताहंकाराः।आदित्यो वै व्यानः समा- 

नोदानोऽपानः प्राणः। आदित्यो वै श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणाः।आदित्यो वै वाक्पाणिपादपायूपस्थाः।आदित्यो वै शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः। आदित्यो वै

वचनादानागमनवि-सर्गानन्दाः। आनन्दमयो ज्ञानमयो विज्ञानमय आदित्यः।। 5।। 

आदित्य से ही वायु, भूमि, जल और ज्योति उत्पन्न होती है। उन्हीं से आकाश और दिशाओं की उत्पत्ति होती है। उन्हीं से देवताओं और वेदों का प्राकट्य होता है। आदित्य देव ही इस ब्रह्माण्ड को तपाते हैं। यह आदित्य ही ब्रह्म है। यही अन्तःकरण(चतुष्टय), मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार रूप है। यह आदित्यदेव  ही प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान-इन पांच प्राणो के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यही श्रवेणेन्द्रिय, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण नामक इन पांच इन्द्रिय रूप  में क्रियाशील हैं। वाक्, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ नामक  इन पांच कर्मेन्द्रियों  के रूप में भी यही हैं।  आदित्य ही शब्द, स्पर्श, रूप,  रस, गन्ध नामक  पांच  ज्ञा- नेन्द्रियों को तन्मात्रा तथा वचन, आदान, गमन, मलविसर्जन व आनन्द  नामक पांच कर्मेन्द्रियों  की तन्मात्रारूप हैं। यही  आनन्दमय, ज्ञानमय तथा विज्ञान- मय हैं।  


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सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। सूर्याद्वै खल्विमानि भूतानि जायन्ते। सूर्याद्यज्ञः  पर्जन्योऽन्नमात्मा।।3।।  सूर्यदेव समस्त जड़ और चेतन जगत् की आत्मा हैं। सूर्य से सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है। सूर्य से ही यज्ञ, पर्जन्य, अन्न एवं आत्मा(चेतना) का  प्रादुर्भाव  होता  है।  नमस्त आदित्य। त्वमेव प्रत्यक सूर्यापनिषद् ३
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रचनाएँ
upnishedonkaamrit
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उपनिषदों का अमृत चखाएंगे!
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सूर्योपनिषद् - 1

25 जून 2016
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    सूर्योपनिषद अथर्ववेदीय परम्परा से संबंध रखता है। इस उपनिषद में आठ श्लोकों में ब्रह्मा और सूर्य की अभिन्नता वर्णित है और बाद में  सूर्य  व  आत्मा  की अभिन्नता प्रतिपादित की गई है। इस उपनिषद के पाठ के लिए हस्त नक्षत्र स्थित सूर्य का समय अर्थात् आश्विन मास सर्वोत्तम माना गया है।  इसके पाठ  से व्यक्

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सूर्योपनिषद् - 2

27 जून 2016
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    ॐ भूर्भुवः सुवः। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमिहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ।।2।।    जो प्रणव रूप में सच्चिदानन्द परमात्मा भूः, भुवः, स्वः रूप त्रिलोक में संव्याप्त है। समस्त सृष्टि के उत्पादन करने  वाले उन  सवितादेव  के सर्वोत्तम  तेज का  हम ध्यान करते हैं, जो(वे सविता देवता)हमारी बुद्धियों

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सूर्यापनिषद् - 3

28 जून 2016
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सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। सूर्याद्वै खल्विमानि भूतानि जायन्ते। सूर्याद्यज्ञः  पर्जन्योऽन्नमात्मा।।3।।  सूर्यदेव समस्त जड़ और चेतन जगत् की आत्मा हैं। सूर्य से सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है। सूर्य से ही यज्ञ, पर्जन्य, अन्न एवं आत्मा(चेतना) का  प्रादुर्भाव  होता  है।  नमस्त आदित्य। त्वमेव प्रत्यक

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सूर्योपनिषद् - 5

30 जून 2016
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नमो मित्राय भानवे मृत्योर्मा पाहि। भ्राजिष्णवे विश्वहेतवे नमः। सूर्याद्भवनित भूतानि सूर्येण पालितानि तु। सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यः सोऽहमेव च। चक्षुर्नो देवः सविता चक्षुर्न उत पर्वतः। चक्षुर्धाता दधातु नः। आदित्याय विद्महे सहस्त्रकिरणाय धीमहि।तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।  सविता पश्चात्तत्सविता 

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सूर्योपनिषद् - 6 -

1 जुलाई 2016
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सूर्योपनिषद - 7

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मुफ्त में सूर्योपनिषद् पुुस्तक रूप में अपने मेल पर प्राप्त करे!!!

3 जुलाई 2016
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पूर्व में सात भाग में सूर्योपनिषद् की चर्चा की गई है। इस चर्चा में सूर्योपनिषद् के अमृत का रसास्वादन कराया गया था। यदि आप  सूर्योपनिषद् को पुस्तक रूप में अपने मेल पर मुफ्त में पाना चाहते हैं तो  मित्रता का अनुरोध करते हुए उपनिषदों का अमृत वेबपेज का अनुसरण करें और मुझे मेरे अधोलिखित मेल पर उक्त पुस्त

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सूर्योपनिषद् मुफ्त में डाॅउनलोड करके अपने मोबाईल पर पढ़ें!

16 जुलाई 2016
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चाक्षुषोपनिषत् स्वस्थ नेत्रों के लिए रामबाण है।

4 अगस्त 2016
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हमारे शरीर में नेत्रों का स्थान सर्वोपरि होने के कारण ही इसे अनमोल कहा जाता है। आगे पढ़ें- चाक्षुषोपनिषत् स्वस्थ नेत्रों के लिए रामबाण है हमारे शरीर में नेत्रों का स्थान सर्वोपरि होने के कारण ही इसे अनमोल कहा जाता है। नेत्रों में पीड़ा हो या उसमें रोशनी न हो तो वे व्यर्थ हैं। नेत्र नीरोग रहें उसमे

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