खुद का सब्र आज़माया,
उसके दर से पहले,
रास्ते में थे कई मुकाम, उसके घर से पहले,
ऊँचें बेशक़ कर लिए दर-ओ-दिवार अपने,
यक़ीनन झुका था ईमान, खुद नज़र से पहले,
बिना कहे-सुने
ही जद्दो-जेहद बयाँ हो गयी,
जी भर के रोया था जो, अपने फ़क़्र से पहले,
शायद कुछ अधूरी सी ही रह गयी वो दुश्मनी,
हमारी ज़िंदगी जो कट गयी, इक सर से पहले,
यूँ घबरा रहे हो जो स्याह रात के अंधेरों से,
जानो ना होगी सहर अभी, चार पहर से पहले,
तबियत शायद नासाज़ थी किसी बेरुखी से,
आ गया आराम जो सलाम के असर से पहले,
'दक्ष' ख़ामोशी अक्सर होती है क़हर से पहले,
मिलता कहाँ है आबे-हयात भी ज़हर से पहले,
विकास शर्मा 'दक्ष'