शिक़वा यह नहीं
कि हम पे ऐतबार नहीं,
ज़ालिम, के लहज़े में रहा
अब प्यार नहीं,
जवाब देते क्या
हम सवालिया नज़र का,
ढूंढते रहे, पर दिखा उसमें
इंतज़ार नहीं,
बातें तो देर
तल्क, करता
रहा वो मुझसे,
खोखले अल्फ़ाज़
में मिला अफ़्कार नहीं,
साक़ी मेरा क्या
बिगाड़ लेगी तेरी शराब,
निगाहे-नरगिस
से जो हुआ सरशार नहीं,
माना नाराज़ है
पर जलील किये सरे-राह,
इस ज़माने का तो
मैं रहा ख़ता-कार नहीं,
दिन-रात बैठा
तेरी अदावत ही झेलता रहूं,
फुर्सत से हूँ
मगर इतना भी मैं बेकार नहीं,
'दक्ष' बुनियाद पर बला
का भरोसा था हमें,
बेशक खंडहर हुए
हों पर हुए मिस्मार नहीं,
विकास शर्मा 'दक्ष'
अफ़्कार = विचार / ख्याल ; निगाहे-नर्गिस = प्रियतमा की नज़र ; सरशार =
मदमत्त / नशे में चूर ; सरे-राह = बीच रास्ते के ; खता-कार = दोषी /
कसूरवार ; अदावत = दुश्मनी ; बुनियाद = नींव ; मिस्मार = ध्वस्त करना / भूमिसात करना