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शिक़वा

4 दिसम्बर 2017

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शिक़वा यह नहीं कि हम पे ऐतबार नहीं,

ज़ालिम, के लहज़े में रहा अब प्यार नहीं,

जवाब देते क्या हम सवालिया नज़र का,

ढूंढते रहे, पर दिखा उसमें इंतज़ार नहीं,

बातें तो देर तल्क, करता रहा वो मुझसे,

खोखले अल्फ़ाज़ में मिला अफ़्कार नहीं,

साक़ी मेरा क्या बिगाड़ लेगी तेरी शराब,

निगाहे-नरगिस से जो हुआ सरशार नहीं,

माना नाराज़ है पर जलील किये सरे-राह,

इस ज़माने का तो मैं रहा ख़ता-कार नहीं,

दिन-रात बैठा तेरी अदावत ही झेलता रहूं,

फुर्सत से हूँ मगर इतना भी मैं बेकार नहीं,

'दक्ष' बुनियाद पर बला का भरोसा था हमें,

बेशक खंडहर हुए हों पर हुए मिस्मार नहीं,

विकास शर्मा 'दक्ष'

अफ़्कार = विचार / ख्याल ; निगाहे-नर्गिस = प्रियतमा की नज़र ; सरशार = मदमत्त / नशे में चूर ; सरे-राह = बीच रास्ते के ; खता-कार = दोषी / कसूरवार ; अदावत = दुश्मनी ; बुनियाद = नींव ; मिस्मार = ध्वस्त करना / भूमिसात करना

विकास शर्मा दक्ष की अन्य किताबें

आलोक सिन्हा

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अच्छी गजल है |

5 दिसम्बर 2017

नीरज चंदेल

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बेहतरीन .

5 दिसम्बर 2017

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उसके घर से पहले,

23 जून 2017
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खुद का सब्र आज़माया,उसके दर से पहले,रास्ते में थे कई मुकाम, उसके घर से पहले,ऊँचें बेशक़ कर लिए दर-ओ-दिवार अपने,यक़ीनन झुका था ईमान, खुद नज़र से पहले,बिना कहे-सुनेही जद्दो-जेहद बयाँ हो गयी,जी भर के रोया था जो, अपने फ़क़्र से पहले,शायद कुछ अधूरी सी ही रह गयी वो दुश्मनी,हमारी ज़िंदगी जो कट गयी, इक सर से पहले,

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इंसानी हकूक और पत्थरबाजों की वहशी भीड़

25 जून 2017
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अभी हाल में कश्मीर के नौहट्टा से एक दुखद घटना सुनने को मिली ...... शहीद DSP मौहम्मद अयूब की निर्मम हत्या से कुछ सवाल खड़े हुए है जो इन 2 रचनाओं के माध्यम से सामने रख रहा हूँ

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इंसानी हकूक और पत्थरबाजों की वहशी भीड़ 1

25 जून 2017
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शिक़वा

4 दिसम्बर 2017
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शिक़वा यह नहींकि हम पे ऐतबार नहीं,ज़ालिम, के लहज़े में रहाअब प्यार नहीं, जवाब देते क्याहम सवालिया नज़र का,ढूंढते रहे, पर दिखा उसमेंइंतज़ार नहीं, बातें तो देरतल्क, करतारहा वो मुझसे,खोखले अल्फ़ाज़में मिला अफ़्कार नहीं, साक़ी मेरा क्याबिगाड़ लेगी तेरी शराब,निगाहे-नरगिससे जो हुआ सरशार नहीं, माना नाराज़ हैपर जलील क

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दोस्ती

5 दिसम्बर 2017
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क्या सोचता हूँ मैं

23 अक्टूबर 2018
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पुछा है कि दिन-रात,क्या सोचताहूँ मैं,इश्क इबादत, नूर-ए-खुदा सोचता हूँ मैं, रस्मों-रिवायत की नफरत से मुखाल्फ़त, रिश्तों में इक आयाम नया सोचता हूँ मैं, मसला-ए-मुहब्बत तो ना सुलझेगा कभी,मकसद जिंदगी जीने का सोचता हूँ मैं, इक बार गयी तो लौटी ना खुशियाँ कभी,कैसे भटकी होंगी व

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