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क्या सोचता हूँ मैं

23 अक्टूबर 2018

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पुछा है कि दिन-रात, क्या सोचता हूँ मैं,

इश्क इबादत, नूर-ए-खुदा सोचता हूँ मैं,

रस्मों-रिवायत की नफरत से मुखाल्फ़त,

रिश्तों में इक आयाम नया सोचता हूँ मैं,

मसला-ए-मुहब्बत तो ना सुलझेगा कभी,

मकसद जिंदगी जीने का सोचता हूँ मैं,

इक बार गयी तो लौटी ना खुशियाँ कभी,

कैसे भटकी होंगी वो रास्ता सोचता हूँ मैं,

शिकवे-शिकायत तोहमत-इल्ज़ाम हैं सही,

ज़ीस्त में बिखरी अहदे-वफ़ा सोचता हूँ मैं,

यूँ तो हैं जमाने में नामवर भी एक से एक,

अंधेरो में खोया गुमनाम चेहरा सोचता हूँ मैं,

‘दक्ष’ ये किस्मत बेशक हो ख़ुदा ने लिखी,

कुछ इरादों से, खुद को बंधा सोचता हूँ मैं,

विकास शर्मा ‘दक्ष’
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