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व्यंग्य - लेखक और सम्मान

26 मार्च 2017

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लेख क के जीवन पर लिखा गया एक दिलचस्प व्यंग्य जो आपके दिल को छू जायेगा। इसके साथ ही लेखकीय जीवन भी बतायेगा।

--अमित शर्मा

लेखक होना बड़ी ज़िम्मेदारी का काम होता है क्योंकि आपको जबान ना चलाकर अपनी कलम चलानी होती है। सामाजिक सरोकारों की गठरी कंधो पर उठाए ,ज़बान को लगाम देकर,कलम के घोड़े दौड़ना एक चुनौतीपूर्ण कार्यक्रम है जिसे उचित क्रम में फॉलो करना होता है। जिस तरह से भगवान केवल भाव के भूखे होते है उसी तरह से लेखक केवल सम्मान का भूखा होता है। सम्मान की निर्बाध सप्लाई से ही लेखक द्वारा समाज में क्रांति लाई जा सकती है क्योंकि लेखक जब तक कलम नहीं तोड़ेगा तब तक खाट तोड़ने वाला समाज, निंद्रा से जागकर, सड़को पर उतरकर क्रांति की अलख नहीं जगा पाएगा। लेखक लगातार कलम तोड़ता रहे इसलिए आवश्यक हो जाता है कि समाज लेखक को हाथ जोड़ता रहे। जो राष्ट्र, लेखक और उसके लिखे शब्दों का श्रीफल और शाल ओढ़ाकर सम्मान नहीं करता वो राष्ट्र कभी भी श्रीफल और नारियल के दुरुपयोग को समझकर उसे नहीं रोक पाएगा।


लेखक और सम्मान का चोली दामन का साथ होता है, बिना सम्मान का लेखक ठीक वैसा ही होता जैसा बिना सिमकार्ड का स्मार्ट फोन। सम्मान लेखक के लिए प्राणवायु होती है जो चाहे कितनी भी प्रदूषित क्यों ना हो उसके जीवन के लिए अनिवार्य होती है। लेखक चाहे किसी भी गुट का क्यों ना हो, बिना सम्मान के वो घुट-घुट कर ज़ीने लगता है। अक्सर ये देखा जाता है लेखक के लिए स्याही और सम्मान एक ही दिशा से उपलब्ध होता है, दूसरी दिशा या यू कहे कि विपरीत धारा में लेखक ना बहे इसके लिए आवश्यक हो जाता है कि लेखक को सभी जीवनोपयोगी सामग्री एक ही दिशा से मिलती रहे।


लिख लिख कर भले ही लेखक महोदय की आँखों पर चश्मा लग गया हो लेकिन उनकी दृष्टि बाज़ जैसी होती है, किसी भी संभावित सम्मान की आहट पाते ही वो चौकन्नी हो जाती है, अर्जुन की आँख की तरह लेखक जी की दृष्टि सदैव सम्मान पर टिकी रहती है दूसरो के बताने पर भी कभी उनकी दृष्टि अपने लिखे पर नहीं गिरती है, मतलब वो लेखन कार्य भी सम्मान पर नज़रे गढ़ाए हुए ही कर लेते है। एक सफल लेखक वहीं बन सकता है जो अपनी कलम की तरह ही "चालू" हो ,जो ज़रूरत पड़ने अपने कलम की स्याही बदलने की तरह पाला बदल ले और सम्मान पाने के लिए हमेशा सावधान की मुद्रा में खड़ा मिले। जब सम्मान ही आखिरी मंज़िल हो तो पथरीले और उबड़-खाबड़ रास्ते भी "सम्मानातुर लेखक" के हौसले कोे डिगा नहीं सकते है। भले ही आपका लेखन दूर-दूर तक पहुँचे या नहीं लेकिन दूर-दूर तक के सम्मानकर्ताओ तक आपकी पहुँच देर-सवेेर आपको सम्मानित बना ही देगी।


लेखक कितना ही बेसुरा क्यों ना हो,सम्मान पाते ही श्रीमान लेखक के ह्रदय से स्वर लहरिया फूट पड़ती है, "कागज़, कलम दवात ला, लिख दू दिल तेरे नाम करूँ।"


सम्मान लेखक का गहना होता है और जैसे जैसे लेखक वरिष्ठता को धारण करता है उसी अनुपात में वरिष्ठता और अधिक गहनों की खोज में अपनी लेखकीय सीमाओ का उल्लंघन करती है। सम्मानित और वरिष्ठ लेखक किसी से सीधे मुँह बात करने में अपने आपको असमर्थ पाते है क्योंकि उनके मुँह सम्मान लग चुका होता है। लेखक सम्मान के कुल्ले करता रहे इसके लिए आवश्यक है कि आमजन ये अपमान का घूँट पी ले।


मज़दूर का पसीना सूखने से पहले उसे मज़दूरी मिले या ना मिले लेकिन लेखक की कलम की स्याही सूखने से पहले उसके मुँह में सम्मान का घूँट पहुँच जाना चाहिए और ये देश और समाज की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।


जैसे पानी का स्वभाव बहना होता है, ठीक उसी प्रकार लेखक का स्वभाव भी सम्मान पाते रहना होता है। जैसे अगर कहीं पानी एकत्रित हो जाए तो वो दूषित हो कर सड़ांध मारने लगता है, उसी प्रकार लेखक द्वारा रचित साहित्य अपनी सुवास फैलाता रहे इसके लिए आवश्यक है कि उसके द्वारा रचित साहित्य पर समय-समय पर सम्मान का इत्र छिटका जाए ,अन्यथा वो केवल लुगदी बनकर गंध फैलाएगा।


यह पोस्ट प्रसिद्द व्यंग्यकार अमित शर्मा जी ने लिखी है। अमित शर्मा जी पेशे से C.A. है और मुम्बई शहर के निवासी है। अमित शर्मा जी सम-सामयिक मुद्दों पर नियमित लेखन करते है। लेखक काफी समय से लेखन से जुड़े हुए हैं।

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