9 फरवरी 2016 में जेएनयू के बाद एक बार फिर 21 फरवरी 2017 को डीयू में होने वाली घटना ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि क्यों हमारे छात्र संगठन राजनैतिक मोहरे बनकर रह गए हैं और इसीलिए आज एक दूसरे के साथ नहीं एक दूसरे के खिलाफ हैं
इन छात्र संगठनों का यह संघर्ष छात्रों के लिए है या फिर राजनीति के लिए?इनकी यह लड़ाई शिक्षा नौकरी बेरोजगारी या फिर बेहतर भविष्य इनमें से किसके लिए है ?
इनका विरोध किसके प्रति है भ्रष्टाचार भाईभतीजावाद या फिर गुंडागर्दी ?
इनका यह आंदोलन किसके हित में है उनके खुद के या फिर देश के?
अफसोस तो यह है कि छात्रों का संघर्ष ऊपर लिखे गए किसी भी मुद्दे के लिए नहीं है।
सवाल कालेज प्रशासन से भी है कि उमर खालिद अतिथि वक्ता के तौर पर रामजस कालेज को उपयुक्त क्यों दिखाई दिया जो कि स्वयं एक छात्र है?
उनका आदिवासियों पर किया गया शोध अन्तराष्ट्रीय दर्जे का था या फिर अफजल और बुरहान वाणी जैसे आतंकवादियों से उनकी हमदर्दी उनकी योग्यता बन गई?
और जब कुछ छात्रों के विरोध के फलस्वरूप " विरोध की संस्कृति " विषय पर आयोजित इस सेमीनार में वक्ता के तौर पर उनका आमंत्रण निरस्त किया जाता है तो वामपंथी छात्र संगठन द्वारा इस 'विरोध ' के विरोध में बस्तर और कश्मीर की आज़ादी के नारे क्यों लगाए जाते हैं?
यह कैसी पढ़ाई है और ये कौन से छात्र हैं?
जब एबीवीपी इन नारों का विरोध करता है तो बात अभिव्यक्ति की आजादी और राष्ट्रवाद पर कैसे आ जाती है?
अभिव्यक्ति की यह कैसी आज़ादी है जिससे देश की अखंडता ही खतरे में पड जाए?
क्यों हमारे कालेज के कैम्पस पढ़ाई से ज्यादा राजनीति के अड्डे बन चुके हैं?
देश की राजधानी दिल्ली का रामजस कालेज,1917 में अपनी स्थापना के साथ इस वर्ष अपने 100 वर्ष पूर्ण कर रहा है।
दिल्ली यूनिवर्सिटी देश की सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी है जिसमें एडमिशन मिलना ही अपने आप में एक उपलब्धि मानी जाती है। वहाँ पर हमारे छात्रों को वैचारिक और सांस्कृतिक खुलेपन के नाम पर क्या परोसा जा रहा है ?
बड़े ही भोलेपन से कुछ लोग यह सवाल कर रहे हैं कि इस सेमीनार में आमन्त्रित सदस्यों को सुनने से क्या हो जाता? तो इसका जवाब इन वक्ताओं के अतीत में है। उमर खालिद का इतिहास तो पूरा देश जानता है। शहेला राशिद एक कश्मीरी होने के साथ ही एआईएसए की वाईस प्रसीडेंट हैं। जिस संगठन से वे जुड़ी हैं जाहिर है वे छात्रों के आगे उस विचारधारा को ही परोसतीं।
माया कृष्ण राव थ्रिएटर कलाकार हैं जो नाटक एवं अन्य कलाओं से छात्रों को 'विरोध' के तरीके सिखातीं।
सृष्टि श्रीवास्तव जो कि 'पिंजरा तोड़ अभियान ' चलाती हैं वो महिलाओं को ' पितृसत्तामक संस्कृति ' का विरोध करना बतातीं कि आखिर क्यों लड़कियों के लिए रात आठ बजे के बाद बाहर निकलना मना है लेकिन लड़कों के लिए नहीं। प्रद्युमन जयराम जो कि लन्दन में पीएचडी कर रहे हैं वो सोशल मीडिया पर विरोध के तरीके उसके फायदे और उससे होने वाले नुकसान के बारे में बताते। विक्रमादित्य सहाय ट्रान्सजोन्डर लोगों को समाज में मिलने वाले विरोध का विरोध करते।
इन लोगों को सुन कर हमारे छात्रों का क्या भला हो जाता?
वैसे तो सेमीनार का विषय भी अपने आप में बहुत कुछ कहता कि किसी सकारात्मक विषय के बजाए विरोध जैसे विषय को बच्चों के आगे रखकर देश के वातावरण में नकारात्मकता नहीं फैलायी जा रही?
हमारे देश ने हाल ही में अनेक उपलब्धियाँ हासिल की हैं जैसे इसरो ने एक साथ 104 सैटेलाइट लाँच की थी या फिर 2016 के ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौता अथवा भारत के योग को विश्व भर में जो मान्यता मिली है इसके अलावा भारत के युवाओं को उद्यमी कैसे बनाएँ जैसे अनेकों विषय वाद विवाद के लिए हो सकते थे लेकिन कल्चरल स्टडीज़ के नाम पर अपनी सोच अपनी संस्कृति अपने 'पिंजरे' से बाहर निकलने के लिए प्रेरित करने के बहाने हमारे देश के युवाओं को एक विशेष संस्कृति का मीठा जहर बहुत ही चालाकी से परोसा जा रहा है।
छात्र तो मोहरा भर हैं असली राजनीति तो वे समझ ही नहीं पा रहे। शायद इसीलिए 27 फरवरी को रामजस कालेज के प्रिंसिपल राजेन्द्र प्रसाद छात्रों के बीच खुद पर्चे बाँट रहे थे जिसमें उन्होंने साफ तौर पर लिखा कि देशभक्ति की हवा तले शिक्षा को खत्म न होने दें। वे सियासी औजार बनकर न रह जांए और उस राजनीति को स्वीकार न करें जो उनकी पढ़ाई के ही खिलाफ है। विरोध तर्कों का हो विचारों का हो लेकिन एक दूसरे का तो कतई न हो।