वो दिन
मन की उलझनों का दिन
उमंगे जो सुप्त पड़ी थी
मानो इसी की राह थी
अब ना था बांध का रुकना
असंभव -सा था सीमाओं का बंधना
क्षण ही में टूटने का भय
और कुछ पा जाने का लय
मन को अनुनादित सा करता
विचारो का जखीरा उठता
उठता आंधी -सा हवा का झोका
प्रज्वलित करता मन दीपावलीका
कभी बुझने का भय
कभी बढ़ने का भय
उठती हैं लहरे
ये हृदयी लहरे
उमंगो को उठाती
मनोसगार में नया जीवन भरती
फिर से दिखते हैं मिजाज
ऋतुमय ये मिजाज
विचारो की गुत्थियों में उलझा-सा
विचारो की गुत्थियों से निकलता -सा
ये मिजाजी मन
और मन