विश्व की प्राचीनतम एवं समृद्ध भाषा संस्कृत के बहुत से शब्द आज भारतीय समाज में बदनाम कर दिये गये हैं।यह श्रंखला संस्कृत शब्दों की हो रही इस दुर्दशा को सबके समक्ष लाने और उन शब्दों को सम्मान दिलाने का एक छोटा सा प्रयास है।
आज के समय में बुद्धिजीवियों द्वारा सर्वाधिक तिरस्कृत एक शब्द अक्सर सुनाई देता है वह है “धर्म”। धर्म के नाम पर हिंसा होती है, धर्म गुरू दुराचार करते पाये जाते हैं। धर्म या संविधान में श्रेष्ठता की एक होड़ लगी रहती है।कोई हिंदू धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करने में जीवन होम कर रहा है तो कोई इस्लाम के लिये कुर्बान हुआ पड़ा है।
आज जब किसी शब्द के आगे पीछे धर्म लग जाता है या किसी वाक्य में धर्म का प्रयोग होता है तो समाज उस वाक्य में शंका और घृणा खोजता है। ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ इन प्रश्नों के उत्तर जानने और समझने की आवश्यकता है।
अगर देखा जाये तो अंग्रेजी भाषा के शब्द Religion(रिलीजन) भारतीय संविधान में अंगीकृत धर्म निरपेक्षता तथा वर्तमान समाज में ज्ञान पुंज के रूप में प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने इस शब्द और इसके भाव को सर्वाधिक क्षति पहुंचाई है और इस सम्मानित शब्द को समस्याओं का मूल समझने और समझाने लगे हैं।
धर्म वास्तव में संस्कृत भाषा का एक शब्द है अपने इसी स्वरूप में हिंदी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में लिखा पढ़ा अर्थात् प्रयोग किया जाता है।आज की आम बोलचाल में जब हम किसी से पूछते हैं कि आपका धर्म क्या है तो निम्न उत्तर प्राप्त होते हैं- हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध मुस्लिम, यहूदी आदि आदि।अगर सही मायने में इसे समझा जाये तो ये सभी आपको अपनी अपनी उपासना पद्धति, अपनी अपनी आस्था, अपनी अपनी परंपरा, अपने अपने विश्वास और कुछ संदर्भों में अपनी अपनी वेषभूषा, रूप और जीवनशैली का परिचय दे रहे हैं।
हम सभी मनुष्यों का धर्म तो एक ही है, चाहे तो उसे सनातन कह लीजिये या उसे मानव धर्म कह लीजिए।मेरे विचार से मानव धर्म अधिक उपयुक्त है क्योंकि सनातन तो केवल प्रकृति है।सृजन, पोषण और विनाश तो केवल संस्कृति का होता है।
अब प्रश्न यह है कि धर्म शब्द को लेकर इतना भ्रम क्यों है? मुख्य व्यावहारिक कारण है अनुवाद या यूँ कहें हिंदी भाषा का अंग्रेजीकरण , और इसका प्रमाण यह है कि आज हम व्यवहार में धर्म को Religion(रिलीजन) समझने लगे हैं।वास्तविक अर्थों में इन दोनों शब्दों में कोई साम्य नहीं है।
*धर्म का संबंध है – कर्तव्य से*
*Religion(रिलीजन) का संबंध है – आस्था से*
कर्तव्य, आस्था से परे है, आस्था संकुचित है और कर्तव्य विस्तृत। आस्था का क्षेत्र छोटा और कर्तव्य असीम है।अंग्रेजी भाषा के शब्द Duty(ड्यूटी) और Responsibility(रेस्पान्सिबिलिटी) भारतीय शब्द धर्म के सबसे निकट माने जा सकते हैं परन्तु सही अर्थों में ये शब्द भी शत प्रतिशत धर्म की व्याख्या करने में समर्थ नहीं है।
अब आप पूछेंगे कि यदि उपासना पद्धति, वेशभूषा, दिनचर्या इत्यादि धर्म के लक्षण नहीं तो फिर क्या हैं?
अलग-अलग संदर्भों में धर्म के स्पष्ट लक्षण कहे गये हैं।
*धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं* *शौचमिन्द्रियनिग्रहम।*
*धीर्विद्या सत्यम अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम।।*(मनु स्मृति 6•92)
धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय(चोरी न करना), शौच(आंतरिक एवं बाह्य पवित्रता), इंद्रियनिग्रह, धी(सत्कर्मों द्वारा बुद्धि को बढ़ाना), विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के ये दस लक्षण हैं
मनुस्मृति स्वतंत्र भारत में कलंक का एक पर्याय बन चुका है, पर इस पर विवाद करना अभी उचित नहीं होगा अन्यथा तर्कों और कुतर्को की एक लंबी श्रंखला चल पड़ेगी और तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवियों के द्वारा दुष्प्रचारित मनुवाद की बहस का पोषण आरंभ हो जायेगा।मनुस्मृति विवादित हो अथवा न हो फिर भी धर्म के ये लक्षण मानवीयता के कर्तव्य ही तो हैं।
*अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह।*
*दानं दमो दया शांतिः सर्वेषां धर्मसाधनम।।*(याज्ञवल्क्य)
ईश्वर की कृपा है कि याज्ञवल्क्य जी मनु महाराज की तरह कलंकित नहीं है,अतः संभव है कि इनके द्वारा बताये गये 9 धर्म लक्षण समाज को स्वीकार्य हो और उन पर मनुवाद का दोष न लगे।
*महात्मा विदुर*(संयोग से वे स्वयं दासी पुत्र हैं) संभवतः आधुनिक समाज में ब्राह्मण ॠषियों की तुलना में अधिक सलीके से सुने और समझे जायेंगे और ब्राह्मणवाद तथा मनुवाद जैसे बहाने यहाँ काम न आ पायेंगे।उनके अनुसार धर्म के लक्षण दो श्रेणियों में बाँटे जा सकते है- एक) प्रदर्शन >अध्ययन, दान, तप और यज्ञ दो) आचरण>सत्य, दया, क्षमा और अलोभ।
इसके अतिरिक्त *गोस्वामी तुलसीदास* द्वारा रचित धर्मरथ की चौपाइयाँ जो रामचरितमानस का अंश हैं के अनुसार सौरज(शौर्य), धीरज(धैर्य), सत्य, शील, बल, विवेक, दम(संयम), परहित, क्षमा, कृपा, समता, ईश भजन, संतोष, वैराग्य, दान, बुद्धि, विज्ञान, अमल अचल मन, यम-नियम, गुरु का आदर आदि।
सार यह कि वर्तमान में जो धर्म शब्द की समझ लोगों में व्याप्त है, वास्तविकता उससे बहुत भिन्न है।
निक्षेप यह कि आप नमाज़ अदा करते हैं, या संध्योपासन, या अरदास करने गुरुद्वारे जाते हैं या मोमबत्ती जलाते हैं।आप दिशाओं को वस्त्र मानकर यूँ ही घूमते हैं या तिचीवर धारण कर धम्म की शरण में हैं।ये सभी चिन्ह, मानक आपकी आस्था आपके मत आपके सम्प्रदाय,आपके मजहब, आपके Religion( रिलीजन) को प्रकट कर सकते हैं परन्तु ये आपके धर्म को परिभाषित नहीं करते।क्योंकि धर्म आपके रंग रूप और दिनचर्या से नहीं वरन आपके व्यक्तित्व के लक्षणों से परिभाषित होता है।
कभी शांत चित्त हो कर विचार किया जाये तो यह समझ आयेगा धर्म शब्द का पतन तब से हुआ जब उसे मजहब से जोड़ा गया।धीरे-धीरे हमारी भाषा पर थोपा गया ये शब्द मजहब हमारी समझ में धर्म बन गया और जब भारतीयता का अंग्रेजीकरण हुआ तब धर्म को Religion बना दिया गया। Religion शब्द को संविधान, व्यवस्था और लोकतंत्र ने अपने भीतर इस तरह सोखा कि संस्कृत भाषा के शब्द धर्म के सही अर्थों की हत्या ही हो गयी, मानवीय कर्तव्यों को अपने मृत अर्थों के कफन में लपेटे हुये यह शब्द बदनामी के कब्रिस्तान में दफन होता जा रहा है।
- 🖋कप्तान शैलेन्द्र दीक्षित