हम सभी ने प्रायः यह वाक्यांश सुना होगा - "भारतीय मानक समय" या फिर अंग्रेजी में #IndianStandardTime
इसका प्रयोग अक्सर देरी से पहुँचने वाले लोग मुस्कराकर अपनी देर से आने की शर्म को ढांकने के लिये करते हैं।
पर जब सड़क पर चलिये - तो ऐसा लगता है कि सबको समय की बड़ी कीमत है।
पैदल चलने वाला , चलती गाड़ियों की रफ्तार को काटकर सड़क पार कर जाना चाहता है।
साइकिल वाला समझता है कि यातायात के नियम उसके लिये बने नहीं है।
स्कूटी वाली दीदी मेक-अप और बालों की सजावट के सामने सर की सुरक्षा को तरजीह नहीं देती और हवलदार ओहदे के पुलिसवाले को "लेडीज से बात करने की तमीज नहीं" कह कर डपट देती हैं।
मोटरसाइकिल पर पत्नी और तीन बच्चों के साथ पान मसाला खाते हुये चाचा जान सड़क पर यहाँ, वहाँ पेंटिंग भी करते जा रहे हैं। उन्हें न तो सिग्नल की फिकर है , न बीबी बच्चों की क्योंकि एक हाथ से मोबाइल पर अपना कारोबार भी संभाले हुये हैं।
चतुष्चक्रवाहिनी अर्थात कार वाले ज्यादातर सड़क के मालिक होते हैं, और सीटबेल्ट को जनेऊ की तरह पहन लेते हैं , कि बस वो चालान न कटे।इंडीकेटर, वनवे, ओवरटेकिंग, यू टर्न और नो पार्किंग बस इसी के बीच जूझता हुआ हर कोई "भारतीय मानक समय" पर पहुँचने की होड़ में लगा हुआ है।
बंद रेलवे क्रासिंग के दोनो ओर पहले सेनायें मोर्चा बांधती है। बीच बीच में साइकिल, मोटरसाइकिल, और पैदल युयुत्सु बन बैरियर के नीचे से ही पक्ष बदल लेते हैं।
फिर शंख बजता है, डंडा ऊपर उठता है और रेलवे ट्रैक के बीचो बीच एक छोटा मोटा युद्ध होता है और अगली ट्रेन के गुजरने का समय चंद मिनट से टल जाता है, और हम जाने अनजाने रेलवे की सुस्ती के उत्प्रेरक बन जाते हैं।
सड़क दुर्घटनाओं के आंकड़े बन रहे है, लोग दोषारोपण का खेल चला रहे हैं और बस सिलसिला चल रहा है।
हादसे में मरने वाले ने क्या नियम तोड़े, और वो हादसा क्यों हुआ इसकी बजाय आपकी, हमारी दिलचस्पी मरने वाले की जाति, उसके धर्म और उसके अनुसार उसको मिलने वाले सरकारी मुआवजे की रकम पर होती है ताकि मसालेदार बहस हो सके।
आंकड़े, कानून से परे इस सब कुव्यवस्था के दोषियों में सबसे पहला नंबर "हम नागरिकों" का है।