✍🏻 विवश होती कविता✍🏻
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
गोविन्द सिंह
"""""""""""""""
कवि सम्मेलनों की रात में
माईकों पर चढ़ती रही कविता
विविध श्रृंगारों में
श्रृंगारित कविता
चांद- सितारो से सजी
गीत-गानों में रची
प्यार पर बेहयाई
उस रात भी हुई
शर्माती,सकुचाती रही कविता
बागबां की कथा
कलियों-फूलों के कूँचों में गई
पंखुड़ियों से गुंथी मंचासीन
महंगी से महंगी कविता
मंचों से ऐसे ही बिकती रही
कवि-सम्मेलनों की सहमतियां
और डायरी में बढ़ी रेट
लिखते रहे
चांदी कुटते रहे,मंच लूटते रहे
कांपते माईक की एक ना सुनी
कविता की स्याही से
सिर्फ!अपना पेट लिखते रहे
कोलाहल जिन्दा था
कविता तो मर चुकी थी
रमझूड़ी की खुबसूरत आँखें
ठाकुर को भा गई थी
निर्वस्त्र रमझू की मौत
खबर बन अखबार में आ गई थी
बाबूजी का अकेलापन,
कचरा कुरेदते अनाथ,
छलनी होती जमीं
रोता हुआ आसमान
फुटपाथ पर सोता इंसान
बाबूओं से कर्मा परेशान
दहेज में जलती बेटीयां
कर्ज में मरता किसान
कविताओं मे नही बिकता है
कविता में मुहावरों का वमन
शब्दों में काला बाजारी का चलन
साहब के सपनों की जुगाली
चढ़ती जवानी का किस्सा
द्विअर्थी संवाद सजा उलझा
कंचन काया,देह प्रसाधन
मंचों पर रात भर बिकता है
रात भर बिकता है।।
❄❄❄❄❄❄❄❄
03-09-17