✍🏻 जीवन- जगत- तन....✍🏻
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चलो! अब तो दुनियां पर कविता कर लें
डूब रही है कश्तीयां इंसानियत की आज
समन्दर भी परेशान है
गहराईयों को खोकर
बून्दों की अतृप्त प्यास
बुलबुला बनकर समा जाऐगी
उसी में जिससे आई थी,
जैसे रेत घड़ी में से रेत,
कण-कण खिसक कर
दूसरे हिस्से में समा रही है
भागते-दौड़ते पलों में
थमता नहीं सुनहरी रेत सा जीवन।
रिश्तों की नाटक मण्डली में
पात्र बदलते है,स्वांग बदल कर
थोड़ी-थोड़ी देर में
बिछड़ते,फिर मिल जाते हैं
हँसाते,गुदगुदाते, सहलाते,
कभी गहरे घाव दे जाते है
कथानक का नायक नहीं है कोई
जो कहानी थामे अन्त तक चले
सिर्फ मरीचिका है,छलावा है
अवनिका सा बदल जाता है जीवन।
मूल्य विहीन लक्ष्य पथ पर
स्वप्न वायु पंखों में भर कर
कब तक गगन में उड़ते रहेंगे?
पाबन्द है जीवन-जगत-तन
जर्जर तो होंगे ही।
अवसर की प्रतीक्षा में छूटता
जगत,मायूसियां सजा लेता है
मधुरता जीने की,सृजन की,
बसंत और पतझड़ की
सांसों तक सीमित है आनन्द सरिता इस संसार की
दौड़ से पहले जान लेता जीवन।।
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गोविन्द सिंह चौहान
01-09-17