पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आ चुके हैं. राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने अपार बहुमत हासिल किया है. भाजपा और उसके सहयोगी दलों को 325 सीटों पर विजय मिली. वहीं, समाजवादी पारी को 47, कांग्रेस को 7, बहुजन समाज पार्टी को 19, और अन्य को 5 सीटों पर विजय हासिल हुई.
उत्तराखंड में भी भाजपा ने दो तिहाई बहुमत हासिल किया. पार्टी ने 57 सीटों पर जीत हासिल की. कांग्रेस को 11 और अन्य को 2 सीटों पर सफलता मिली.
पंजाब में कांग्रेस ने 77 सीटों के साथ बहुमत हासिल किया. शिरोमणि अकाली दल और भाजपा गठबंधन 18 सीटों पर सिमट गयी. वहीं पहली बार चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी को 22 सीटों पर संतोष करना पड़ा.
गोवा में त्रिकोणीय स्थिति बनी है. सभी पार्टियाँ बहुमत से दूर है. सत्तारूढ़ भाजपा 13, कांग्रेस 17, आप 00 और अन्य को 10 सीटों पर जीत हासिल हुई.
मणिपुर में भी स्थिति गोवा की तरह है. भाजपा को 13 सीटों पर, कांग्रेस को 17, और दूसरी पार्टियों को 10 सीटों पर जीत मिली.
उत्तर प्रदेश में 14 सालों के बाद भाजपा की वापसी हुई है. पार्टी को अप्रत्याशित जीत मिली. बिहार विधान सभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद भाजपा के लिए यूपी में मिली यह जीत किसी संजीवनी से कम नहीं है. राष्ट्रीय राजनीति में बने रहने के लिए यह जीत कितनी महत्वपूर्ण थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार 3 दिनों तक पूर्वांचल में कैंप करते रहे. इस परिणाम ने भाजपा को एक नयी ऊर्जा तो दी ही साथ ही साथ राजनीति के कई मिथकों को भी तोड़ा है.
उत्तर प्रदेश के बारे में हमेशा माना जाता रहा की वहां राजनीति जातीय आधार पर होती है. इस बार के परिणामों में यह धारणा पूरी तरह टूट गयी. लोगों ने जाति को न सिर्फ नकारा बल्कि धर्म के आधार पर समीकरण बनाने वाले दलों को भी एक सबक सिखाया है. सांप्रदायिक पार्टी के रूप में प्रचारित भाजपा ने उन इलाकों में भी भारी जीत दर्ज की जहाँ मुस्लिम आबादी की बहुलता है. मजे की बात तो यह कि पार्टी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया था. यूपी चुनाव में बीजेपी के लिए जीत और जीतने वाले ही मायने रखते थे. इसके लिए बीजेपी ने दूसरी पार्टी से आने वाले उम्मीदवारों का पूरा ख्याल रखा और उन्हें चुनावी मैदान में उतारा जो उम्मीदवार बाहर से आए थे, उन्हें बीजेपी ने करीब 100 सीटें दी. यही फार्मूला बीजेपी ने महाराष्ट्र निकाय चुनावों में भी अपनाया था, जिसमें उसे काफी सीटें मिली थी.
उत्तर प्रदेश में इस बार बीजेपी ने बिहार चुनाव जैसी गलती नहीं दुहराई. सीएम कैंडिडेट का एेलान नहीं करने के बावजूद पार्टी ने स्थानीय नेताओं को पूरी तरजीह दी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ- साथ राजनाथ सिंह, केशव प्रसाद मौर्य, कलराज मिश्रा, उमा भारती को पार्टी ने स्टार कैंपेनर बनाया.
उड़ी हमले के बाद भारतीय सेना द्वारा पीओके में की गई सर्जिकल स्ट्राइक को बीजेपी ने खूब भुनाया. विमुद्रीकरण के फैसले को भी यह जीत जनता की नजरों में सही साबित करती है. तीन तलाक के मुद्दे पर एक सार्थक बहस की शुरुआत करने का भी भाजपा को फायदा मिला. और यही कारण रहा उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 5 दर्जन से अधिक वैसे सीटों पर जीत हासिल की जहाँ वो इससे पहले कभी नहीं जीती थी.
समाजवाद के नाम पर परिवारवाद की राजनीति करने वाले मुलायम कुनबे पर यह परिणाम किसी वज्रपात से कम नहीं है. जनता ने यह बता दिया की उसे कानून का राज चाहिए न की गुंडाराज. पारिवारिक कलह की ड्रामेबाजी और मुलायम सिंह यादव की उपेक्षा अखिलेश पर भारी पड़ी. जब कांग्रेस और सपा में गठबंधन हुआ तो उन्होंने नारा दिया-यूपी को ये साथ पसंद है. लेकिन इन नतीजों से जनता ने साफ कर दिया कि उसे यह साथ जरा भी नहीं भाया. अखिलेश यादव ने कांग्रेस को काफी सीटें दी थीं, लेकिन जमीनी स्तर पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच कोई तालमेल नजर नहीं आया. इतना ही नहीं कांग्रेस के वोट भी सपा की तरफ नहीं आए.
यूपी चुनाव परिणामों से एक बात और स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस सचमुच एक डूबता जहाज है. न तो राहुल गांधी और न ही प्रियंका गांधी में इतनी कूवत है कि वो इस पार्टी को मझधार से बाहर निकाल सके. कांग्रेस को पंजाब में सत्ता विरोधी लहर के मिले फायदे पर भी उत्तर प्रदेश का परिणाम भारी पड़ता दिख रहा है. पार्टी अब वैसे राज्यों तक सिमट कर रह गयी जिसका राष्ट्रीय राजनीति में उतना महत्व नहीं बचा.
दलितों के वोट को अपनी बपौती मानने वाली मायावती के लिए यह चुनाव एक दुःस्वप्न साबित हुआ. लाख कोशिशों के बाद भी दलित वोट बैंक को मायावाती एकजुट रखने में विफल हुई. 2012 में यूपी विधानसभा चुनाव हारने के बाद बसपा को 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान मोदी लहर में एक भी सीट नसीब नहीं हुई. इसके बाद 2017 के चुनावों में उसे कुल 19 सीटें मिली. कई विशेषज्ञ इसे मायावती और उनकी पार्टी के अंत की शुरुआत भी मान रहे हैं. बार-बार नाकामी से मायावती की क्षमताओं पर सवालिया निशान लगना लाजिमी है.
और सबसे हास्यास्पद तो यह की उन्होंने दिल बड़ा कर अपनी हार स्वीकार करने की बजाय इसके लिए सीधे तौर पर इवीएम और चुनाव आयोग को जिम्मेदार ठहरा दिया.
वैसे अखिलेश यादव की दाद देनी होगी की उन्होंने बड़ी शालीनता से अपनी हार स्वीकार की. हालांकि उनके पास इसके सिवाय और कोई चारा भी नहीं था. सत्तारूढ़ होने के कारण वे मायावती की तरह ईवीएम से छेड़छाड़ का आरोप लगाने के काबिल भी नहीं बचे थे. कांग्रेस के साथ गठबंधन भी उनका निजी फैसला था तो उसपर भी ऊँगली नहीं उठा सकते थे.
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इन चुनाव परिणामों ने एक बात और साबित किया कि देश में अब भी मोदी लहर है, जिसका परिणाम 2019 के लोकसभा चुनाव में भी दिख सकता है. यहाँ जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की वह टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने कहा कि विपक्षी दलों को 2019 नहीं बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव के बारे में सोचना चाहिए.