क्या आम भारतीय आज सचमुच यौन दुर्बलता के शिकार हो रहे हैं ! यौन शक्तिवर्द्धक उत्पादों के विज्ञापनों की बहुतायत को देखकर तो ऐसा ही लगता है। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं के पन्ने आज ऐसे विज्ञापनों से भरे पड़े रहते हैं। टी0वी0 चैनलों पर ऐसे उत्पादों के 15-15 मिनट तक के विज्ञापन आ रहे हैं। दीवार लेखन द्वारा सेक्स समस्याओं के निदान के दावे करने वालों के दिन अब लद चुके हैं। अमरोहा वाले वैद्य,ख़ानदानी दवाख़ाना, हाशिमी क्लिनिक, शफ़ी दवाख़ाना... बीते दिनों की बातें हो चुकी हैं। गौर कीजिए, दीवार लेखन द्वारा विज्ञापित ऐसे दावे आपकी समस्याओं के समाधान की बातों तक ही सीमित हुआ करती थी। लेकिन आज ऐसे विज्ञापनों का स्वरूप बदल चुका है। ये आपको कामातुर बनाने की चेष्टा करते प्रतीत होते हैं। और तो और ऐसे विज्ञापन, काम सुख को इस तरह परिभाषित करते हैं जैसे दुनिया का सबसे बड़ा सुख यही हो। ज़रा परिदृश्य पर गौर कीजिए- कुछ दिन पहले तक एक विज्ञापन आया करता था‘‘शिलाजीत कैप्सूल‘‘ का। इसमें उत्पाद को नर्वाइन टाॅनिक के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। आज भी इसका विज्ञापन आता है, लेकिन नये अंदाज़ में। स्टेशनों पर और मैदानों में भी मजमा लगाने वाले शिलाजीत की खूब दुकानदारी किया करते थे। बचपन में जब कभी उत्सुकतावश ऐसे मजमों में पहुंचा तो यह कहकर भीड़ से निकाल दिया गया कि यहां बड़े लोगों के लिए बातें हो रही हैं। यानि, वहां भी एक तरह की सेंसरशिप थी। लेकिन आज हदें टूट रही हैं या यूं कहें कि टूट चुकी हैं। फलां तेल, वटी, अवलेह, कैप्सूल, क्रीम, स्प्रे से जापानी वैक्यूम यंत्र और पट्टी तक न जाने कितने नुसखे़ खुलेआम बिक रहे हैं। इन विज्ञापनों के कंटेंट पर ध्यान दीजिए- प्यार के पहले एहसास से लेकर चरम आनंद तक की प्राप्ति का दावा... ऐसे चेहरों के साथ जो पोर्नोग्राफी से जुड़े होते हैं। इन विज्ञापनों में जिस तरह की भाव-भंगिमाओं का प्रदर्शन होता है, उसे देखकर यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि- ‘‘पीली पन्नियों में लिपटा लुगदी कोक-शास्त्र अब अख़बार के पन्नों से लेकर टी0वी0 स्क्रीन तक पर, सबके लिए सुलभ है।‘‘ मोबाईल फोन पर पोर्न की उपस्थिति; ऐसे उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए केटालिस्ट का काम कर रही है। आयुर्वेद के प्रचलित-अप्रचलित नुसख़ों के बाद होम्योपैथ और ऐलोपैथ दवा निर्माता कंपनियां भी अब खुलकर मैदान में है। हद तो यह है कि ‘‘वियाग्रा‘‘जैसी औषधि (जिसका उपयोग इरेक्टल डिस्फ़ंक्शन और प्लामोनरी अरटेरिल हाइपरटेंशन के लिए चिकित्सकीय देखरेख में होता है) का यौन उत्तेजना हासिल करने के लिए खुलेआम इस्तेमाल हो रहा है और इसे इसी रूप में विज्ञापित भी किया जा रहा है। इन औषधियों के दुष्प्रभावों को बिना जाने-समझे लोग इसका खूब भी उपयोग कर रहे हैं। केमिस्टों को भी बिना डाॅक्टरी पुजऱ्े के इन दवाओं की बिक्री पर कोई एतराज नहीं है। दवा दुकानों में सबसे सामने वाली रैक पर ऐसे उत्पाद आपको क़रीने से सजाकर रखे मिल जायेंगे... यानि खुला आमंत्रण ख़रीदी के लिए। आॅनलाईन शाॅपिंग साइट्स पर भी ऐसे उत्पादों की बिक्री हो रही है। अभी पिछले ही दिनों मुंबई पुलिस ने आॅनलाईन शाॅपिंग कंपनी स्नैपडील, उसके कार्यकारी अधिकारी और अन्य के खि़लाफ़ ऐसी दवाओं की बिक्री करने के आरोप में प्राथमिकी दर्ज करवाई है, जो सिर्फ डिग्रीधारी डाॅक्टरों की पर्ची पर ही बेची जा सकती है। कंपनी पर औषधि अधिनियम, 1954 और ड्रग्स एंड काॅस्मेटिक रूल्स, 1945 की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप गठित किये गये हैं।
सोचने वाली बात है कि भारत जैसे परंपरावादी देश में ऐसी स्थितियां क्यों बनी है? क्या सचमुच हमारे समाज में सेक्स को लेकर वर्जनाएं टूट रही हैं या फिर यह भी एक तरह की कुंठा है? निश्चित रूप से ग्लोबलाईजेशन और सेटेलाईट क्रांति व इंटरनेट तक आमलोगों की पहुंच के बाद यौनिक विषयों पर भारतीय समाज में बातें हो रही हैं। लेकिन इन बातों का स्वरूप क्या है, ये अधिक महत्वपूर्ण है। मानवीय स्वभाव है कि लोग ‘‘वर्जित फल‘‘ खाने को अधिक आतुर होते हैं। निःसंदेह सेक्स भारतीय समाज में एक वर्जित फल हुआ करता था और कमोबेश आज भी स्थितियां वही हैं। हालांकि, इस विषय पर लचीलापन आया है लेकिन उस हद तक नहीं जहां इसकी निषेधात्मक अवधारणा खत्म हो जाती हो। यानि एक संक्रमण की स्थिति बनी हुई है, जो कई मायनों में ख़तरनाक है। इन परिस्थितियों में हर कोई अपना पुनर्संस्कार कराने को आतुर दिख रहा है। और हमारी- आपकी इसी आतुरता का फ़ायदा उठा रही है - यौन शक्तिवर्द्धक उत्पादों की निर्माता कंपनियाँ... ‘‘उत्तेजक और भड़कीले विज्ञापनों के माध्यम से नीली कामनाओं के बाज़ार में दैहिक सुख की कल्पनाओं का रंग भरकर।‘‘ भारतीय समाज में स्त्री-पुरूष के बीच असहज काम संबंधों के मनोविज्ञान को भी इस स्थिति के लिए जि़म्मेवार ठहराया जा सकता है। मनोविज्ञान कहता है कि स्त्री-पुरूषों के काम संबंधों में असहजता और नैसर्गिकता का अभाव संतुष्टि हासिल करने के नये तरीके अपनाने की चाह बढ़ाती है। वहीं,दूसरी ओर भाग-दौड़ वाली दिनचर्या ने हमें उस सीमा तक अवसादग्रस्त बना दिया है, जहां खुशियों की तलाश में हम अप्राकृतिक होते जा रहे हैं। और शायद इसीलिए प्रगतिशीलता के मुहाने खड़े भारतीय समाज में हर वो फंडा आसानी से कामयाब हो जाता है जो हमारी दबी इच्छाओं को आसानी से पूरा करने वाला दिखता हो। परिणाम सामने हैं- ऐसे उत्पादों के भड़कीले विज्ञापन समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में छाये हैं। टी0वी0 पर लोग यह बताते दिख रहे हैं कि किस तरह फलां उत्पाद ने उनके असंतुष्ट सेक्स लाईफ़ में एक नई उम्मीद जगा दी। कैसे एक क्रीम के उपयोग से उन्नत वक्ष प्राप्त कर संपूर्ण स्त्रीत्व को पाया जा सकता है। अगर आप खुद को यौन संबंधों के मामले में संतुष्ट मानते हैं तो भी कोई बात नहीं- ये उत्पाद शौक़ीन लोगों के इस्तेमाल के लिए भी हैं। बाज़ारवाद की पराकाष्ठा तो देखिए- कंडोम;जिसका इस्तेमाल गर्भधारण और एसटीडी से बचाव के लिए होता है, को भी सेक्स में आनंद बढ़ाने वाला कहकर प्रचारित किया जा रहा है।
ऐसे विज्ञापनों के दावे कितने सही हैं या गलत,यह एक अलग विषय है। लेकिन इतना तो तय है कि इनकी प्रस्तुति भ्रामक है और एडवरटाइजिंग कौंसिल आॅफ इंडिया द्वारा तय मानकों के खि़लाफ़ है। औषधि अधिनियम, औषधि एवं सौन्दर्य प्रसाधन अधिनियम,औषधि एवं जादुई विज्ञापन कानून, एकाधिकार एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार कानून, स्त्रियों के अश्लील चित्रण पर रोक बिल और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम जैसे कई कानूनों के तहत इस तरह की औषधियों की खुलेआम बिक्री और विज्ञापनों द्वारा भ्रामक दावों के प्रचार-प्रसार पर रोक है। इन कानूनों के तहत गलत दावे और भ्रामक प्रस्तुति के लिए विज्ञापनकत्र्ता के खि़लाफ़ कड़ी सज़ा का भी प्रावधान है। एडवरटाईजिंग कौंसिल आॅफ इंडिया ने भी विज्ञापनों के लिए जो संहिता तैयार की है उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि- ''विज्ञापनों में सेक्स का भौंडा प्रदर्शन नहीं किया जायेगा। सार्वजनिक शिष्टता के मान्य पहलूओं को अपनाया जायेगा। साथ ही सामाजिक संस्कृति व मर्यादा की गरिमा का हनन नहीं किया जायेगा।'' लेकिन आज इन कानूनों और संहिता की धज्जियां ही उड़ती दिख रही है। सरकार भी इस मामले पर ख़ामोश है। वज़ह है - सिर्फ़ और सिर्फ़ बाज़ार का दबाव। वह बाज़ार, जो सरकार को राजस्व देता है।
सोचने वाली बात यह है कि इस दबाव के आगे किस हद तक समझौतावादी हुआ जाए? अगर स्थितियां ऐसी ही रही तो वह दिन भी दूर नहीं दिखता,जब अख़बारों का मुख्य पृष्ठ पूरा का पूरा किसी ऐसे ही विज्ञापन से रंगा दिख जाए। प्रकाशन-प्रसारण संस्थाओं से इस मुद्दे पर किसी सकारात्मक पहल की उम्मीद तो बेमानी ही है। नियामक संस्थाओं को ही इस तरह के लिजलिजे विज्ञापनों पर रोक लगाने के लिए कदम उठाने होंगे। कुछ और नहीं तो हम स्वयं के स्तर से ऐसे विज्ञापनों का सामाजिक बहिष्कार तो कर ही सकते हैं। अगर समय रहते ऐसा नहीं हुआ तो विज्ञापनों की यह फंतासी दुनिया भारत को कब एक सेक्स काॅमोडिटी बना देगी ये पता भी नहीं चलेगा।
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