shabd-logo

मायने गणतंत्र के...

25 जनवरी 2017

128 बार देखा गया 128
हमारी सकारात्मकता ही एक लोकतांत्रिक और जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रासंगिक बनाती है... इसे अर्थ देती है... इसमें रंगों को भरती है। व्यवस्था को कोसना ही यदि लोकतंत्र के मायने हो जायें तो समझिए हम स्वतंत्र होने के भ्रम में जी रहे हैं और कहीं न कहीं हम पर नकारात्मकता भी हावी है। समाज और व्यवस्था में मौजूद कमियों को, विद्रूपताओं को अपनी विफलता के रूप स्वीकारने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाना भी हमारी स्वतंत्रता के दायरे को सीमित करता है। और यह संकुचन इसलिए है क्योंकि हमने स्वतंत्रता के साथ आयी जिम्मेवारियों को नहीं समझा। बेशक, गणतंत्रके बाद दोपहरी का यह संक्रमणकाल है। देश अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में अभी एक लिटमस टेस्ट से गुजर रहा है। वक़्त का तक़ाज़ा है कि हम समस्याओं का रोना रोने की बजाय, समाधान की दिशा में आगे बढ़ें। चुनौतियाँ हैं; लेकिन संभावनाओं की भी कमी नहीं है। ज़रूरत है एक ऐसे एहसास की; जिसमें संघर्ष और निर्माण के तत्व हों... अपने सपनों के कोलाज़ को बड़ा करने का सामर्थ्य हो... संवेदनाओं की ऊर्जा से सकारात्मकता को विकसित करने की ललक हो... शायद तभी गणतंत्र के अर्थों को पूर्णता मिलेगी। आशावादी होने में कोई बुराई नहीं क्योंकि सिर्फ़ यही तो शाश्वत है।

अभिषेक दास की अन्य किताबें

1

स्वाद तो मसालों में होता है ... माँ के हाथ का खाना होता क्या है ...

24 जनवरी 2017
0
6
3

आजकल टेलीविजन चैनलों पर एक विज्ञापन खूब आ रहा है- एवरेस्ट मसाला का. इसके ब्रांड एम्बेसेडर महानायक अमिताभ बच्चन हैं. कलाकार हैं; अंडर गार्मेंट का विज्ञापन करें या मसाले का, क्या फ़र्क़ पड़ता है. वैसे भी बच्चन साहब के लिए विज्ञापनों की अहमियत फ़िल्मों से थोड़ी अधिक है क्योंकि विज्ञापन की दुनिया ने ही उन्

2

मायने गणतंत्र के...

25 जनवरी 2017
0
2
0

हमारी सकारात्मकता ही एक लोकतांत्रिक और जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रासंगिक बनाती है... इसे अर्थ देती है... इसमें रंगों को भरती है। व्यवस्था को कोसना ही यदि लोकतंत्र के मायने हो जायें तो समझिए हम स्वतंत्र होने के भ्रम में जी रहे हैं और कहीं न कहीं हम पर नकारात्मकता भी हावी है। समाज और व्यवस्था

3

बाज़ार में पण्य है नारी देह

2 फरवरी 2017
0
2
2

यह बाजा़र की सत्ता के रोमांचक प्रदर्शन का समय है। बाज़ार ही आज नियामक संस्था है। इसका महज अर्थशास्त्र ही नहीं, समाजशास्त्र भी है। नैतिक आचरण और सामाजिक वर्जनाओं की दुहाई देने का समय अब लद चुका है। बाज़ार की सत्ता के आगे अब कुछ भी वर्जित नहीं है। यह तो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना माल बेचने से मतलब रखता है।

4

बाज़ार में बिक रहा है कौमार्य ... 

7 फरवरी 2017
0
5
0

अमूमन पुरुषों को दाग़-धब्बे पसंद नहीं होते सिवाय सुहागरात के बेडशीट पर खून के उन धब्बों को छोड़कर जिसे वे अपनी पत्नी के कौमार्य की निशानी मानते हैं। प्रथम सहवास के दौरान आनंद की कम और इन दाग़ों की खोज़ अधिक रहती है। खून के ये दाग़ पुरुषवादी सोच के लिए सिर्फ़ ये जानने का ज़रिया भर नहीं है कि उसने अद्

5

नीली कामनाओं का बाज़ार

24 फरवरी 2017
0
4
1

क्या आम भारतीय आज सचमुच यौन दुर्बलता के शिकार हो रहे हैं ! यौन शक्तिवर्द्धक उत्पादों के विज्ञापनों की बहुतायत को देखकर तो ऐसा ही लगता है। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं के पन्ने आज ऐसे विज्ञापनों से भरे पड़े रहते हैं। टी0वी0 चैनलों पर ऐसे उत्पादों के 15-15 मिनट तक के विज्ञापन आ रहे हैं। दीवार लेखन द्वारा

6

बहुत कुछ कह जाता है यह चुनाव परिणाम

11 मार्च 2017
0
1
0

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आ चुके हैं. राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने अपार बहुमत हासिल किया है. भाजपा और उसके सहयोगी दलों को 325 सीटों पर विजय मिली. वहीं, समाजवादी पारी को 47, कांग्रेस को 7, बहुजन समाज पार्ट

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए