यह बाजा़र की सत्ता के रोमांचक प्रदर्शन का समय है। बाज़ार ही आज नियामक संस्था है। इसका महज अर्थशास्त्र ही नहीं, समाजशास्त्र भी है। नैतिक आचरण और सामाजिक वर्जनाओं की दुहाई देने का समय अब लद चुका है। बाज़ार की सत्ता के आगे अब कुछ भी वर्जित नहीं है। यह तो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना माल बेचने से मतलब रखता है। शायद इसीलिए तो केसर-शिलाजीत वाले पान मसाले के (अव)गुणों के बखान के लिए स्त्री के मांसल देह को दिखाने से परहेज़ नहीं किया जाता है। याद कीजिए कुछ दिन पहले तक स्विमसूट में समुद्र स्नान कर, और भी नमकीन हो चुकी बाला... सीमेंट बेचती नज़र आ जाती थी। पुरुषों के शेविंग क्रीम से लेकर उनके अंतःवस्त्रों तक के विज्ञापनों में देह-दर्शना नारी की पैठ तो काफ़ी पहले ही हो चुकी थी। आज स्थिति यह है कि बिना नारी देह के विज्ञापनों की ग्लैमरस दुनिया की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अहम सवाल यह कि विज्ञापनों में स्त्री देह का यह चित्रण युग सापेक्ष है या बाज़ार सापेक्ष ?
बेशक, नारी देह के प्रति एक सहज और स्वाभाविक आकर्षण होता है। और हमारी परंपरा में निर्वसनता या देह-नग्नता की सांस्कृतिक व्याख्याएँ भी संभव रही है। कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने नारी देह के अधखुलपने का सौन्दर्य कुछ इस तरह चित्रित किया है- “नील परिधान बीच सुकुमार/ खुल रहा मृदुल अधखुला अंग/ खिला हो ज्यों बिजली का फूल/मेघवन बीच गुलाबी रंग...।“
.... यह कवि की कल्पना ही है, जो 'खुल रहा मृदुल अधखुला अंग' के रूप में नारी देह के सौन्दर्य की सर्जनात्मक अनुभूति कराता है। महान फिल्मकार राजकपूर ने "सत्यम शिवम् सुन्दरम्" और "राम तेरी गंगा मैली"जैसी फि़ल्मों में भी नारी देह को जमकर चित्रित किया। लेकिन यह चित्रण सौन्दर्य बोध से ओत-प्रोत था। यहाँ 'नारी देह’ दिखता था लेकिन आज वही'दिखाया’ जा रहा है। कहा जाता है कि "जो दिखता है, वही बिकता है।" यानि,दिखाना बाज़ार की ज़रूरत है। इसलिए तो आज सौ में से तक़रीबन अस्सी विज्ञापन ऐसे हैं, जिसके माध्यम से बाज़ार में नारी देह को न सिर्फ़ परोसा जा रहा है बल्कि उसकी ब्रांडिंग भी की जा रही है।
ऐसा नहीं है कि विज्ञापनों में स्त्री की छवि में यह परिवर्तन एकबारगी आ गया हो। याद कीजिए कुछ दशक पुराना सिगरेट का वह विज्ञापन जिसमें एक लंबी छरहरी युवती हाथ में जलती सिगरेट लिए खड़ी थी और नीचे लिखा था- “यू हैव कम ए लांग वे बेबी।” डिटर्जेंट और टाॅयलेट सोप के विज्ञापनों तक सीमित, कामकाजी छवि वाली नारी का यह रूप उस समय अप्रत्याशित था। बावजूद इसके, यह विज्ञापन काफी लोकप्रिय हुआ और इसे स्त्री सशक्तीकरण और स्वातंत्र्य की दिशा में मील का पत्थर माना गया। इस बात की परवाह किए बिना की स्त्री की यह छवि तात्कालीन सामाजिक यथार्थ से कोसों दूर थी। दरसल इस विज्ञापन की लोकप्रियता नारी के बदलते स्वरूप के कारण नहीं थी। इसकी मुख्य वजह थी- भारतीय समाज की वो नैतिक बाधाएँ जिस कारण पुरुष वर्ग स्त्री की उन्मुक्त छवि देखने से अबतक वंचित था। और कोई शक नहीं कि सदियों से पुरुष मानसिकता स्मार्ट, बोल्ड एंड ब्यूटीफुल वुमैन को ही अपनी कल्पनाओं में जीता रहा है। भारत के विज्ञापन गुरु माने जाने वाले एलेक पद्मसी ने इस संक्रमणकारी मनोवैज्ञानिक स्थिति को बखूबी समझा और झरने के नीचे नहाती बिंदास युवती के माध्यम से 'लिरिल' को भारतीय समाज के एक वर्ग की पहली पसंद बना दिया। इसके बाद तो यह सिलसिला चल सा पड़ा।
ये तो एक शुरूआत थी। नब्बे के दशक के आरंभ में राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था को भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था का अंग बनाने के साथ ही भारत, “वैश्विक ग्राम” का हिस्सा बन गया। उस वैश्विक ग्राम का... जो सीमाओं को तोड़ती है और इस क्रम में वह सामाजिक संरचना और व्यवस्थाओं पर भी कुठाराघात करने से भी नहीं हिचकती। इस व्यवस्था में बाज़ार ही सबकुछ होता है... यहाँ तक की सामाजिकता और नैतिकता का नियंता भी। आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया और उसके पश्चात केबल सैटेलाइट क्रांति ने भारत की तस्वीर ही बदल दी। अब इलेक्ट्राॅनिक मीडिया दूरदर्शन के एकाधिकार से बाहर आ चुका था। कई निजी टी.वी. चैनल आ चुके थे। देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आगमन हो रहा था और उन्होंने अपने उत्पादों को आम भारतीयों में लोकप्रिय बनाने के लिए इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के माध्यम से न केवल बाज़ार में घुसपैठ की बल्कि ज़रूरी सामाजिक और सांस्कृतिक आधार भी बनाना शुरु कर दिया। एम टी.वी., स्टार, सोनी, वी आदि चैनलों के द्वारा पश्चिमी जीवन शैली परोसी गई और आम भारतीयों को इस शैली में ढालने की व्यापक मुहिम चलाई गई।
इधर, पश्चिमी देशों से उधार के तौर पर लिए गए नारीवादी विमर्श और आंदोलनों से नारी सशक्तीकरण के नाम पर उच्छृंखलता और भौंडेपन की भी शुरुआत हो चुकी थी। “बोल्ड एंड ब्यूटीफुल वुमैन” का कांसेप्ट हावी हो चुका था। और नारी की इसी बदली हुई भूमिका का लाभ उठाना शुरु किया उपभोक्ता कंपनियों ने- विज्ञापनों में नारी देह की कामनाओं का रंग भरकर अपने उत्पादों का बाज़ार मूल्य हासिल करने के नायाब नुस्ख़े से। इस स्थिति के लिए भारतीय समाज में स्त्री-पुरुषों के बीच असहज संबंधों को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। मनोविज्ञान कहता है कि स्त्री-पुरुषों के बीच संबंधों में असहजता 'नग्नता’ को बढ़ावा देती है। और शायद इसीलिए संक्रमण की देहरी पर खड़े भारतीय समाज में इस फंडे ने बड़ी आसानी से काम कर दिखाया। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव के आगे प्रिंट मीडिया को भी अपना पुनर्संस्कार करना पड़ा। इन सबका असर ये हुआ कि नारी अब एक उत्पाद की भूमिका में आ गई। एक ऐसा उत्पाद जो बाज़ार की भाषा बोल सके। स्त्री देह के सौन्दर्य की नई परिभाषाएँ गढ़ सके। ऐसी परिभाषाएँ... जो स्त्री को उत्प्रेरक नहीं, उत्तेजक बनाती है... उसे बाज़ार में पण्य बनाती है।
इन सब के बीच सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि फि़ल्मों में अंग प्रदर्शन के मुद्दे पर या अन्य आपत्तिजनक दृश्यों पर सामाजिक दुष्प्रभाव की दुहाई देते हुए सेंसर बोर्ड की कैंची तो चलती रहती है लेकिन विज्ञापनों के मामले में ऐसा क्यों नहीं होता ? ज़ाहिर तौर पर फि़ल्मों की तुलना में विज्ञापनों की व्यापक पहुँच होती है और इसका असर भी तुलनात्मक रूप से जनमानस पर अधिक होता है। सवाल लाजि़मी है कि विज्ञापनों के लिए आखिर सेंसरशिप क्यों नहीं ? ऐसा भी नहीं है कि भारत में विज्ञापनों के लिए आचार संहिता नहीं बनाई गई हो। एडवरटाइजिंग कौंसिल आॅफ इंडिया भारत में विज्ञापनकर्ताओं, विज्ञापन एजेंसियों, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं आदि द्वारा स्थापित की गई एक संस्था है, जो विज्ञापनों के लिए आचार संहिता का निर्माण करती है। इस संस्था ने विज्ञापनों के लिए जो संहिता तैयार की है उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि- "विज्ञापनों में सेक्स का भौंडा प्रदर्शन नहीं किया जायेगा। सार्वजनिक शिष्टता के मान्य पहलूओं को अपनाया जायेगा। साथ ही सामाजिक संस्कृति व मर्यादा की गरिमा का हनन नहीं किया जायेगा।" लेकिन आज जनसंचार के विभिन्न माध्यमों में जो भी विज्ञापन प्रचारित-प्रसारित किए जा रहे हैं उसमें इस संहिता की धज्जियां ही उड़ती दिख रही है। ऐसे विज्ञापनों के खिलाफ़ शिकायत दर्ज करवाने पर इन नियामक संस्थाओं की तंद्रा कभी-कभार टूटती दिखाई देती है। जैसा कि पिछले दिनों एक अंडरवियर का विज्ञापन (जिसमें एक माॅडल अंडरवियर धोते हुए अश्लील एक्सप्रेशन देती है) और एक डियोरडेंट का विज्ञापन (कामुक भाव-भंगिमाओं के कारण) बैन कर दिया गया था। एक जींस का विज्ञापन भी पिछले दिनों काफी विवादित रहा। अक्षय कुमार और अन्य महिला माॅडलों पर इस विज्ञापन में सेक्सुअलिटी को बढ़ावा देने का आरोप लगा था। अंतःवस्त्रों का एक विज्ञापन, जिसमें डिनो मारिया, बिपाशा बसु के अंतःवस्त्रों को अपनी दाँतों से उतारते नज़र आते थे;भी काफ़ी विवादों में रहा। बाद में इस पर बैन लगा दिया गया। बैन तो लगा... लेकिन जनता की शिकायत के बाद।
जब तक इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर दूरदर्शन का एकाधिकार रहा,स्थिति इतनी बदतर नहीं थी। हमारे जनप्रतिनिधि भी इस मामले पर काफी सचेत थे। यहाँ तक कि एक कंडोम के विज्ञापन पर संसद में सवाल भी उठा और अंततः उसे बैन भी कर दिया गया। मधु सप्रे और मिलिंद सोमण पर नग्नावस्था में फि़ल्माये गए जूते के एक बहुचर्चित विज्ञापन को भी आपत्तिजनक मानते हुए प्रतिबंधित कर दिया गया था। डेबोनियर पत्रिका के एक अंक में प्रकाशित मार्क राबिंसन और पूजा बेदी के विज्ञापन पर भी खूब शोर-शराबा हुआ था। इस तरह के कई उदाहरण हैं। इतना ही नहीं उस समय वयस्कों के लिए जो विज्ञापन हुआ करते थे, उसके प्रसारण का समय भी नियत होता था। लेकिन आज स्थितियाँ ठीक उलट है। हर कोई इस मामले पर ख़ामोश है। वज़ह है- मीडिया की बाज़ार पर निर्भरता। वह बाजा़र जो मीडिया हाउसों में पूँजी प्रवाह बनाए रखता है।
सोचने वाली बात है कि नारी देह की परिधि तक सीमित रहने वाले ऐसे विज्ञापनों को क्या स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में बढ़ा हुआ एक कदम माना जा सकता है ? शायद नहीं, क्योंकि यहाँ न तो स्त्रियों की आत्मसचेत व आत्मनिर्भर छवि ही दिखाई देती है और न ही सामाजिक बदलावों और गतिशीलता की झलक ही। और निःसंदेह नारी की यह छवि कभी भी समाजिक रूप से उत्प्रेरक नहीं हो सकती। यह छवि तो लक्षित होती है सिर्फ़ और सिर्फ़ बाज़ार को... उस बाज़ार को जिसमें हरेक को किसी भी कीमत पर अपनी माल खपानी है। और दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से हम उस सीमा तक बाज़ार के दबाव में आ चुके हैं जहाँ ऐसे मुद्दों पर विमर्श स्त्री की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने का उपक्रम भर माना जाने लगा है।