दास्तान-ए-इश्क हर रोज़ लिखा नहीं जाता,
तारीख़ में हर बात को दर्ज़ किया नहीं जाता,
गर तारीख में दर्ज़ मेरा इश्क हो गया,
तो शायद वो दास्ताँ-ए-इश्क हो गया .
कोई खुद के इश्क को दास्ताँ यूं कहता नहीं,
कोई खुद को तारीख़ यु बनाता नहीं,
हमने जीते जी अपने इश्क को दास्ताँ समझ लिया,
खुद को तारीख-ए -हिस्सा बना लिया. (आलीम)