आओ चलो अब हम मरने चलें,जीवन में अपने कुछ करने चलें।
हर तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला ,हर घडी घटनाओं का अम्बर काला।
बलात्कार,खून,रंजिश,डकैती ;दुश्मन ही नहीं अब भाइयों में भी होती।
नेताओं में ईमान था भला कहाँ;कहो पहले भी कब सहज-सुलभ रहा।
अब तो वो नंगई में उतारू हो रहे;सत्ता की खातिर सारे कुकर्म कर रहे।
यही हाल तथाकथित बुद्धिजीवियों का है;मीडिया तो दो हाथ आगे खड़ा है।
तो यही देख,सुन,और झेल कर ,करता हूँ आह्वाहन सबका हाथ जोड़ कर।
मुझे मालूम है मेरे इस बुलावे में;कुकर्मी,बुद्धिजीवी पड़ेंगे नहीं बहलावे में।
आएंगे तो बस भोले-भाले लोग;या की फिर आतंक मचा रहे लोग।
दरअसल आतंकी को तो पक्का है;हूरों का संग मिलना ही मिलना है।
ऐसी घुट्टी उनके आका पिला रहे;चाहे खुद दुनिया में रहते जश्न मना रहे।
हाँ पर एक ऐसी कौम बड़ी है;जो बिन लालच मरने तत्पर तैयार रही है।
निरीह बकरे के जैसी,एक आदेश पर ;खुद की गरदन दुश्मन से कटवाने पर।
हाथ बंधे,मुख बांधे,कभी न उफ़ करते;मरने को तैयार पत्थरबाजों के चलते।
यद्यपि कुकर्मी,बुद्धिजीवी,दलाल मीडिया वाले;उड़ाएंगे उपहास चाहे हम हों या फ़ौज़ वाले।
फ़ौज़ ही करती अत्याचार ऐसा ये फैलाएंगे;और हमारी बेमौत आत्महत्या बताएंगें।
माना मौत हमारी आत्महया ही होगी;पर वो तो मज़बूरीवश एक बार ही होगी।
लेकिन देशद्रोहियों को कैसे हम समझाएं;इनके टूटे आईने कैसे इनको दिखलायें।
सांस-सांस पर आत्महत्या करते जो रहते ,राष्ट्रद्रोह के डी.एन.ए. संग ही जो जीते रहते।