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मोबाइल दोहे (हास्य-व्यंग)

27 जुलाई 2016

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 मोबाइल का प्रचलन बढ़ा,जबसे चारों ओर

सुबह-शाम बस बातों में,रहता सबका जोर।

बैटरी ख़त्म को हो होती,प्राण कंठ को आते  

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मिल जाए खाली सॉकेट,चेहरे हैं खिल जाते।

कहना ना कहना सब,जोर-जोर चिल्लाना

मोटरसायकल,कार चलाते भाता बड़ा बतियाना।

अब जब से स्मार्टफोन,घर-घर है जा पहुंचा

फेसबुक,ट्विटर ही लगता,सबको अपना बच्चा।

सुबह-सवेरे उठ कर पहले,व्हाट्स ऍप खंगालना

तब कहीं जा के काम जरूरी,और अन्य निपटाना।

मेरी सेल्फी जैसे भी हो सबसे बस नायाब रहे

यही सोच सूली चढ़ने,हर कोई अब तैयार रहे।

फ़्रॉड भी इनसे होने लगे,अब तो बेहिसाब

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फिर भी दिल भरता नहीं,इनसे जरा ज़नाब।

दरअसल इनके लाभ की चर्चा,हर एक ख़ासोआम

दुनिया पूरी मुठ्ठी में रहती,रुके ना कोई काम।


संजना पाण्डेय

संजना पाण्डेय

बहुत अच्छा लिखा है

27 जुलाई 2016

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रचनाएँ
astrokavitarkesh
0.0
यह ब्लॉग जोतिष,अध्यात्म,साहित्य को समर्पित है.
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